गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

नहीं तो सारे बादल इनके खेतों में बरस जाएँ...



धमाकों से दहलती मुंबई, मौत का मातम करते सगे सम्बन्धी,जख्मों का दर्द झेलते,किस्मत या बदकिस्मती से बचे लोग।
... इन सबके बीच सिसकती मानवता ...
और इन सबसे अलग सत्ता की अटारी में बैठे व गलियारों में टहलते हुए ये लोग,जिनसे उम्मीद की जाती है की मरहम लगाएंगे,किन्तु वे ऊपर से,खून से रिसते घावों पर नमक छिड़क नहीं रहे,बरसा रहें हैं।लानत है हम सबको जिन्होंने अपने टूटे,झुकते कन्धों पर लादकर इनको, सिंघासन पर बैठा दिया (जिनके कंधे मजबूत होतें हैं वो वोट नहीं देते ).
देखिये इन बोरों से किस तरह नमक बरस रहा है:

- प्रधानमंत्री पद की प्रतीक्षा में बैठे 'युवराज' कहतें हैं कि हर आतंकवादी घटना को रोकना संभव नहीं है (यानी आगे कुछ भी उम्मीद रखना जनता की बेवकूफी है )।दर्द आपने भी सहा है युवराज जी अपने पिता व दादी को खोकर और पूरा देश आपके उस दुःख में शरीक रहा है और चुनाओं में पूर्ण बहुमत देकर इसका इज़हार भी किया है।संवेदनाएं व्यक्तिगत होतीं हैं,इसलिए कोई दूसरा चाह कर भी उसे समझ व माप नहीं सकता।किसी के जाने के बाद यदि छोड़े गए परिजनों के पास बाकी जीवन जीने के संसाधन मौजूद हों तो दुःख थोडा कम हो जाता है, लेकिन उनका क्या जिनके परिवारों से ऐसे हादसों में रोजी-रोटी का एकमात्र जरिया भी छिन जाता हो ... उनके पास तो मातम के लिए संवेदनाएं भी नहीं बचती।मृत्यु शाश्वत सत्य है, वह आएगी, लेकिन अकाल मृत्यु और वो भी दर्दनाक, तकलीफ देती है।आपका कहना कि,'हम ९९ प्रतिशत आतंकवादी हमलों को तो रोक लेंगे, पर १ प्रतिशत चूक भी हो सकती है', आपकी दुःख से त्रस्त आम जनता के प्रति संवेदनहीनता का घोतक है। ये कुछ इस तरह है कि कोई किसी का सिर धड से अलग कर तर्क दे कि सिर ही तो अलग हुआ है बाकी शरीर तो ९० प्रतिशत बाकी है।
- माननीय गृह मंत्री कहते है कि मुंबई आतंकवादी हमला ख़ुफ़िया तंत्र की नाकामी नहीं है। न जाने वो क्या कहना चाहते हैं? ख़ुफ़िया विभाग का काम क्या अब ये नहीं रहा ? क्या उनको देश के अन्दर सरकार के विरोधियों के विरूद्ध जानकारी जुटाने में व्यस्त कर दिया है? कम से कम राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियों को तो अपना काम मुस्तैदी व ईमानदारी से करने दें, यह देश के हित में है, हालाँकि सब जानते हैं कि विगत वर्षों में घटित आतंकवादी घटनाएं अभी तक अनसुलझी है, फिर भी आपके लिए खुफिया तंत्र कामयाब है।पिछले कुछ सालों में RAW जैसी संवेदनशील संस्था व गृह मंत्रालय तक में तैनात उच्च अधिकारियों की राष्ट्रविरोधी कारनामों व भ्रष्टाचार के उजागर होने के बाद भी, क्या हम कोई सबक नहीं ले सकते? एक समय था जब कोई दुर्घटना या जुर्म होता था तो उसे जल्द व निष्पक्ष तरीके से सुलझाने के लिए CBI द्वारा जांच की मांग की जाती थी, लेकिन धीरे-धीरे अब इसका भी राजनीतिकरण हो गया है, कई केस ऐसे हुए जैसे 'आरुशी तलवार मर्डर केस' जिनमें उनकी क़ाबलियत,कार्यशाली व निष्पक्षता पर सवालिया निशान लगा दिए। अब CBI अधिकांशत सत्ताधारी दल द्वारा अपने विरोधियों को प्रताड़ित करने, लगाम कसने व उनको दण्डित करने के लिए प्रयोग में लाये जाने वाला हथियार मात्र है।

- आतंकवाद का कोई मज़हब नहीं होता, वे केवल मानवता के दुश्मन हैं, चाहे वो हिन्दू हों या मुस्लमान या कुछ और।यदि ऐसा कोई काम हिन्दू संगठन करता है तो दंडनीय है, लेकिन जांच के दौरान इस तरह की बयानबाजी न केवल अशोभनीय है, बल्कि निंदनीय है, ओछापन है,विशेषतया यदि ये सत्ताधारी दल के उच्च पदस्थ नेता के मुख से निकल रही हो।यदि आपके पास कुछ इस तरह के सबूत हैं तो उनको जांच एजेंसियों के सामने प्रस्तुत करें और यदि आप ऐसा नहीं करते तो माना जायेगा कि आप तथ्यों को छुपा रहें हैं जो की अपने आप में जुर्म है और इस तरह आप न केवल जांच एजेंसियों व जनता को दिग्भ्रमित कर रहे हैं बल्कि स्वयं आतंकवाद को समर्थन दे रहे हैं।
बहुत देर हो चुकी है लेकिन फिर भी आम जनता को,चाहे किसी धर्म की हो, हिंदुस्तान की हो या पाकिस्तान की,आत्म मंथन करना होगा, स्वयं को झकझोरना होगा कि -
ये सब क्यों हो रहा है, कौन हैं ये सब करने वाले,क्यों करते हैं,क्या ये सब रोका जा सकता है,और किस तरह रोका जा सकता है? ये सब वो प्रश्न हैं जिनके सार्थक जवाबों के बगैर हम कोई ठोस व स्थाई हल नहीं निकाल सकते। हमको वास्तविकता से रूबरू होना होगा, हमको असली चेहरों से नकाब हटानी होगी। वर्ना आने वाली नस्लें हमें कभी मांफ नहीं करेंगी। आतंकवाद की जड़ में बहुत घिनोंने लोग हैं जो अपनी सत्ता व सुख के लिए, एक दुखी को दूसरे दुखी के खिलाफ, एक मजबूर को दूसरे मजबूर के खिलाफ खड़ा कर खून का प्यासा बना देते हैं। हाल ही में एक बोद्ध प्रचारक ने आतंकवाद का विश्लेषण करते हुए कहा था,"Terrorists are victims and they create more victims."
आज कसाब के लिए सरकार द्वारा करोड़ों रुपया खर्च किया जा रहा है।अक्सर दिमाग में आता है कि इस खर्च का एक प्रतिशत भी कसाब या इन जैसे लोगों को सही वक़्त व सही तरीके से मिल जाता तो वो आतंकवाद का रुख नहीं करते।हम केवल कठपुतलियों की गर्दन मरोड़ रहे हैं, न धागे को देख पा रहे न उँगलियों को।

अभी हाल ही में मौजूदा हालत पर व्यंग करते हुए हिंदी कवि जमुना प्रसाद उपाध्याय ने कहा था-

यहाँ वारंट है, कुर्की है, कारागर का डर है।
अगर गुंडे सियासत में न जाएँ तो कहाँ जाएँ।
नदी के घाट पर भी गर सियासी लोग बस जाएँ
तो प्यासे होंठ एक-एक बूँद को तरस जाएँ।
गनीमत है कि मौसम पर हुकूमत चल नहीं सकती,
नहीं तो सारे बादल इनके खेतों में बरस जाएँ ।

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