बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

करें संस्कृति पूजन.......



संस्कृति अर्थात सम्यक कृति. विश्वनियन्ता द्वारा निर्मित अनन्त कृतियों में श्रेष्ठ कृति कौन सी है ? इस प्रश्न का उत्तर खोजा जाए, तो मनुष्य ही उस गौरवपूर्ण पद को प्ताप्त करेगा, यह नि:संशय बात है. भगवान नें गीता में मनुष्य को "ममैवांश" अपना ही एक अंश कहकर गौरवास्पद बनाया है.
परमेश्वर की इस श्रेष्ठ कृति मनुष्य को सदैव श्रेष्ठता के उन्नत शिखर पर स्थिर रहने का मार्गदर्शन देने वाली, हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा निर्मित विचारप्रणाली और तदनुकूल आचारसंहिता का भी काल अनुसार संस्कृति मेम समावेश हुआ. विचारों का विस्तार अनवधि कालमर्यादा में सुरक्षित रखना आसान न होने से उन महान विचारों नें सूत्रों का रूप धारण करके आत्मसंरक्षण की योजना बना ली. इन विचार-सूत्रों नें ही बाद में यथोचित प्रतीकों का रूप ले लिया. आचारसंहिता में आ रही निरे शुष्क उपदेशों की जडता को दूर करने के लिए शास्त्रकारों नें विभिन्न प्रकार के त्योहार बनाए. त्योहारों के उभंग में आचारपालन सहज और रसपूर्ण हुआ. योग्य अर्थ में यदि प्रतीकों को समझकर त्योहारों को मनाया जाए तो संस्कृति किसी भी समय पुनर्जीवित हो सकती है. प्रतीकों में बुद्धि का वैभव दिखाई देता है तो त्योहारों में भाव का प्रवाह दिखाई पडता है. प्रतीकों में बुद्धि की सजावट है तो त्योहारों में ह्रदय की शिक्षा है. आज की भाषा में कहना हो तो प्रतीक संस्कृति के विचारविज्ञान है, जब कि त्योहार हैं उन विचारों को आसानी से आचार-व्यवहार में लाने की कला. भाव और बुद्धियुक्त प्राणी होने के नाते त्योहार और प्रतीक दोनों मानव के जीवन-निर्माण में अमूल्य योगदान करते हैं. भाव और बुद्धि जीवन में ऎसे सम्मिश्रित हुए हैं कि उन दोनों को पृथक-पृथक देखना कठिन है और इसीलिए कईं प्रतीकों को और त्योहारों को अलग करना अशक्यवत प्रतीत होता है.
हमारे प्रतीक और त्योहारों का सभ्यता की अपेक्षा संस्कारों से कहीं गहरा नाता है.संस्कार-सर्ज में उन सांस्कृतिक तत्वों का हिस्सा बहुत ही प्रशंसनीय है.
संस्कृति को देश-काल की मर्यादा की रूकावट नहीं होती. संस्कृति की प्राचीनता या अवार्चीनता की झंझट में पडे बिना उसकी वर्तमान श्रेष्ठता का नि:संकोच स्वीकार करना ही बुद्धिमान इन्सान का लक्षण है.
भारतीय संस्कृति याने वेदमान्य और व्यासमान्य संस्कृति. प्रत्येक मानव को उसकी समस्यायों का हल भारतीय सांस्कृतिक विचारधारा से प्राप्त हो सकता है. लेकिन इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि समग्र विश्व को चिरंतन मार्गदर्शन दे सकने में समर्थ इस संस्कृति की महानता को न समझने वाला आज का भारतवासी अपने प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए विश्व भर में भटकता फिर रहा है.
आज के युग में सबसे पहले तो हममें भारतीय संस्कृति के लिए अस्मिता निर्माण होनी चाहिए और "मैं भारतीय हूँ" इस बात का गौरव होना चाहिए. "भारत की इस धरती पर जन्म लिया, यह मेरा सौभाग्य है"-----यह भावना यदि पक्की होगी तो मानव संस्कृति का सच्चे अर्थ में पूजन कर सकता है. पूजन में समर्पण गृहित है. जब संस्कृति मुझे प्यारी होगी तभी मैं उसके चरणों पर अपना जीवन भावपूर्ण अन्त:करण से समर्पित कर सकता हूँ.
संस्कृति के तत्वों को जीवन में चरितार्थ करने का प्रयत्न करना और सांस्कृतिक विचार विश्व के कोने-कोने में पहुँचाने के लिए कटिबद्ध होना ही सच्चा संस्कृति-पूजन है. तो फिर, आईये लक्ष्मी पूजन कर चुकने के बाद अब क्यों न संस्कृति पूजन् आरम्भ किया जाए!!!

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