गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

कहो कौन्तेय-३९ (महाभारत पर आधारित उपन्यास-अंश)





(दुर्योधन, कर्णादि की गंधर्वों के हाथ पराजय)
विपिन किशोर सिन्हा
द्वैतवन के विशाल और कई योजन तक फैले हुए मनोरम सरोवर के एक किनारे हमारी पर्णकुटी थी। उसी में हम निवास करते थे। महर्षि धौम्य के परामर्श पर हमने एक पवित्र यज्ञ – राजर्षि, संपन्न करने का निर्णय लिया। सरोवर के तट पर यज्ञवेदी बनाई गई और द्रौपदी के साथ अग्रज युधिष्ठिर ने यज्ञ आरम्भ किया। दिवस के अन्तिम प्रहर में हमने यज्ञ निर्विघ्न संपन्न किया। विश्राम के लिए हम पांचो भ्राता आसन ग्रहण कर ही रहे थे कि दुर्योधन के मंत्रियों के क्रन्दन ने हमारा ध्यान भंग किया। दुर्योधन के विश्वस्त मंत्री युधिष्ठिर के सम्मुख शरणागत हो सहायता की याचना कर रहे थे -
“महाराज! महाबाहु दुर्योधन को चित्रसेन गंधर्व बलपूर्वक बन्दी बनाकर लिए जा रहा है। उसने दुशासन, दुर्विषय, दुर्मुख, दुर्जन तथा सभी रानियों को भी बन्दी बना लिया है। अंगराज कर्ण पराजित होकर युद्धभूमि से पलायन कर चुके हैं। कुरुकुल की प्रतिष्ठा धूल-धूसरित हो रही है। हे अजातशत्रु। आपके सिवा कौन है जो इस समय उनकी रक्षा करे। कृपया उनकी रक्षा में प्रवृत्त हों।”
“यह कैसे हुआ मंत्रिवर? कुरुराज्य की विशाल सेना, महारथी सुयोधन, सुशासन और कर्ण को पराजित कर, गंधर्वराज चित्रसेन ने समस्त गान्धारीपुत्रों एवं रानियों को बन्दी बना लिया, विश्वास नहीं होता! इस घोर वन में उनके आने का क्या प्रयोजन था? कृपया समस्त घटनाओं का वृत्त विस्तार से दें।” युधिष्ठिर ने मंत्रीवर से प्रश्न किया।
“महाराज कूटनीति क्षणिक सफलता तो दे सकती है, स्थाई शान्ति नहीं। आप वन में रहकर भी शान्त, स्थिर और प्रसन्नचित्त दृष्टिगत हो रहे हैं, दूसरी ओर महाराज दुर्योधन राजप्रासाद में रहते हुए भी सदा आशंकित, अशान्त और भविष्य के प्रति अनिश्चित दिखाई देते थे। अपने विश्वस्त गुप्तचरों के माध्यम से सतत आपके विषय में सूचनाएं एकत्रित करते रहते थे। जैसे-जैसे आपकी तपस्या और धनुर्धर अर्जुन के दिव्यास्त्र प्राप्ति की सूचना उन्हें मिलती, वे उद्विग्न हो जाते, उनके नेत्रों से निद्रा का लोप होने लगता। आपके यश और वीरवर अर्जुन की शौर्यगाथा ने महाराज दुर्योधन, दुशासन और कर्ण समेत समस्त कौरवों को ईर्ष्या के सागर में डुबो दिया। कुछ ही दिन पूर्व एक गुप्तचर ने द्वैतवन में आपकी उपस्थिति की सूचना महाराज धृतराष्ट्र को दी। सभा में दुर्योधन, कर्ण और शकुनि भी उपस्थित थे। यह सूचना पाकर कि आप सभी द्वै्तवन में भीषण कष्ट पा रहे हैं, वायु और धूप के प्रहार से शरीर कृश हो गए हैं, पांचाल राजकुमारी वल्कला धारण कर तपस्विनी बनी हुई हैं, दुर्योधन के हर्ष की सीमा नहीं रही। कर्ण और शकुनि भी अत्यन्त प्रसन्न हुए। दोनों ने दुर्योधन को परामर्श दिया -
“राजन! जिस तरह सूर्य अपने तेज से संपूर्ण सृष्टि को तपाता है, उसी तरह आप भी अपने तप से पाण्डवों को संतप्त करें। यह समय गायों और बछड़ों की गणना करने तथा उनके रंग और आयु का विवरण एकत्र करने के लिए बहुत उपयुक्त है। यह एक सुखद संयोग है कि आजकल अपनी गौवों के गोष्ठ द्वैतवन में ही हैं। हम सभी वहां सेना के साथ घोषयात्रा के बहाने चलें। आपकी महीषियां भी आपके साथ बहुमूल्य आभूषणों से सुसज्जित होकर चलें और मृगचर्म एवं वल्कलवस्त्र धारिणी द्रौपदी को देखकर अपनी छाती ठंढ़ी करें तथा अपने ऐश्वर्य से उसका जी जलाएं।
हमलोगों को देखकर भीम अपना क्रोध नहीं रोक पाएगा। हमलोग भी विभिन्न उपायों से उसकी क्रोधाग्नि भड़काएंगे। वह निश्चित रूप से हमलोगों से युद्ध करेगा। इस समय शत्रु कृशकाय और दुर्बल हैं। उनका वध कर हम सदा के लिए अपना मार्ग निष्कंटक कर लेंगे।”
महाराज दुर्योधन को यह योजना भा गई। महाराज धृतराष्ट्र की भी स्वीकृति प्राप्त कर ली गई। अपने समस्त बन्धुओं, महीषियों और सेना के साथ उन्होंने द्वैतवन के लिए प्रस्थान किया। यहां से एक योजन की दूरी पर इस मनोरम सरोवर के किनारे पड़ाव डाला गया। दुर्योधन कुछ और सोच रहे थे, नियति कुछ और ही योजना बना रही थी। हमलोगों ने देखा – गन्धर्वराज चित्रसेन अपने सेवक, सेना और अप्सराओं के साथ उसी सरोवर में जलक्रीड़ा कर रहे थे। उन्होंने कौरवों को सरोवर प्रयोग करने की अनुमति प्रदान नहीं की। सेनापति द्वारा हठ किए जाने पर उन्होंने सबको अपमानित करते हुए, दुर्योधन के शिविर में खदेड़ दिया। दुर्योधन भला इतना बड़ा अपमान कैसे सह सकते थे? शीघ्र ही युद्ध की घोषणा कर दी गई।
एक ओर कर्ण के नेतृत्व में कौरव सेना थी, तो दूसरी ओर चित्रसेन के नेतृत्व में गन्धर्व सेना। दोनों ओर से बड़ा ही भीषण और रोमांचकारी युद्ध छिड़ गया। महारथी दुर्योधन और महारथी कर्ण की बाण वर्षा ने गंधर्वों के शिकंजे ढीले कर दिए। गंधर्वों को भयभीत देख चित्रसेन के क्रोध का पारावार नही रहा। उन्होंने विशेष मायास्त्र का प्रयोग किया। कौरवों के पास इसका प्रत्युत्तर नहीं था। हमारे एक-एक कौरव वीर को दस-दस गंधर्वों ने घेर लिया। उनके प्रहार से पीड़ित हो वे रणभूमि से प्राण लेकर भागे। कौरवों की सारी सेना तितर-बितर हो गई। अकेले कर्ण अपने स्थान पर पर्वत के समान अविचल खड़े रहे। अन्त में हजारों की संख्या में गंधर्वों ने कर्ण को घेर लिया। उनके रथ के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। उनके प्राण संकट में पड़ गए। कोई उनकी सहायता के लिए आगे नहीं बढ़ पा रहा था। उनके पास युद्ध से पलायन के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं बचा। हाथ में ढाल-तलवार ले, वे रथ से कूद पड़े और विकर्ण के रथ पर बैठकर तेजी से युद्धभूमि से बाहर निकल आए।
दुर्योधन के देखते-देखते, कौरव सेना में भगदड़ मच गई। उन्होंने अकेले ही गंधर्वों का सामना किया लेकिन विजय चित्रसेन की ही हुई। उसने सभी बन्धुओं और राजमहीषियों के साथ दुर्योधन को बन्दी बना लिया।”
मंत्री के तरल नेत्र, धर्मराज युधिष्ठिर के मुखमण्डल पर केन्द्रित हो गए। ऐसी विषम परिस्थिति में आशा के एकमात्र केन्द्र वे ही थे। मन्त्रियों के मन के भीतर एक भय पहले से ही विराजमान था – कही महाराज युधिष्ठिर ने दुर्योधन के विगत व्यवहारों को स्मरण कर ‘ना’ कर दिया, तो क्या होगा?
युधिष्ठिर विचारमग्न थे। सहसा भीम के अट्टहास ने वातावरण की नीरवता भंग की -
“जो कार्य हमलोग कई अक्षौहिणी सेना, गजारोही, अश्वारोही और भांति-भाति के दिव्यास्त्रों की सहायता से, लक्ष-लक्ष सेनाओं के बलिदान के उपरान्त करते, आज वही कार्य गंधर्वराज चित्रसेन ने कर दिया। आज का दिन हर्षित होने का है, महाराज! जो लोग असमर्थ पुरुषों से द्वेष करते हैं, उन्हें दैव भी नीचा दिखा देता है। हम लोगों का संपूर्ण राज छल से हस्तगत कर, हमें धूप, शीत, वायु का कष्ट सहने के लिए घनघोर वन में भेज कर भी दुरात्मा दुर्योधन को शान्ति नहीं प्राप्त हुई। वह दुर्मति हमलोगों को इस विषम परिस्थिति में देखकर हृदय शीतल करना चाहता था। उस दुष्ट को बन्धुओं समेत उचित दण्ड मिलने दें और दुर्योधन को अपने कर्मों का उचित फल भोगने दें।”
“नहीं भ्राता भीम! तुम क्रोध और प्रतिक्रिया में ऐसा कह रहे हो। यह समय कड़वी बातें कहने का नहीं है। कुटुम्बियों में लड़ाई-झगड़े और मतभेद तो होते ही रहते हैं। जब बाहर का कोई शत्रु कुल पर आक्रमण करता है, तो उसका प्रतिकार न करना, मर्यादा के प्रतिकूल है। गंधर्वराज चित्रसेन हमारी कुलवधुओं को बन्दी बना, लिए जा रहा है। शरणागत की रक्षा करना तथा अपने कुल की लाज बचाना, इस समय हम सबका धर्म है। अतएव विगत को विस्मृत कर, अर्जुन, नकुल और सहदेव को साथ लेकर अपनी कुलवधुओं और सुयोधन आदि को मुक्त कराकर ले आओ।” युधिष्ठिर ने धीर-गंभीर वाणी में आदेश दिया।
मंत्री की आंखों में चमक लौट आई। यन्त्र की भांति भीमसेन के नेतृत्व में, नकुल, सहदेव और मैंने युद्ध के लिए प्रस्थान किया।
सर्वप्रथम मैंने गंधर्वों को समझाने का प्रयास किया। उन्हें बताया कि युद्ध में स्त्रियों को बन्दी बनाना और मनुष्यों के साथ युद्ध करना उनके लिए निन्दनीय कार्य है। उनसे दुर्योधन और कुरुकुल वधुओं को मुक्त करने का आग्रह भी किया, लेकिन उन्होंने मेरी एक न सुनी। अन्त में, अपने मित्र चित्रसेन से मुझे दूसरी बार युद्ध करना पड़ा। मेरे दिव्यास्त्रों और भैया भीम के भीषण प्रहारों से गंधर्व तिलमिला उठे। कुछ समय तक युद्ध करने के उपरान्त चित्रसेन ने अस्त्र डाल दिए। हमने दुर्योधन, उसके समस्त भ्राताओं और कुलवधुओं को मुक्त करा लिया। सबको साथ ले हम युधिष्ठिर के पास आए।
दुर्योधन के नेत्र एकबार पृथ्वी में गड़े तो गड़े ही रह गए। मुखमण्डल पीत वर्ण हो रहा था। लज्जा रोम-रोम से फूट रही थी। वाणी लड़खड़ा रही थी। उसने धीमे-धीमे बोलना आरंभ किया -
“धर्मराज! मैं बहुत लज्जित हूं। आज जो कुछ मैंने पाया है, वह मेरे ही दुष्कर्मों का फल है। आपने मुझे प्राणदान दिया है। मैं इस उपकार का बदला कभी चुका नहीं सकता। मैंने छल से आपका राज्य द्युतक्रीड़ा में जीत लिया था। सिंहासन के असली उत्तराधिकारी आप ही हैं। आप मेरे साथ हस्तिनापुर चलें और अपना अधिकार प्राप्त करें।”
“नहीं सुयोधन नहीं। मैं तुम्हारे प्रस्ताव से रंचमात्र भी सहमत नहीं। दूसरे की विवशता का लाभ उठाना धर्मसंगत नही है। हमने धर्म और कुल की रक्षा के लिए ही समस्त कष्ट सहे हैं। हमें अपने कर्त्तव्य-पथ से विचलित करने का प्रयत्न न करो, मेरे अनुज। तुम्हें सफलताओं के लिए हम शुभकामनाएं देते हैं।” युधिष्ठिर ने दुर्योधन को सांत्वना दी।
लज्जा के बोझ से दबे दुर्योधन ने हस्तिनापुर के लिए विदा ली।

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