शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

अपनों ने ही हराई थी हिंदी की लड़ाई



इस वाकये को 25 साल से ज्यादा हो चुके हैं। जगह थी इलाहाबाद विश्वविद्यालय का अमरनाथ झा हॉस्टल, जो कभी म्योर हॉस्टल हुआ करता था जिसे अंग्रेज़ीदां लोग अब भी म्योर हॉस्टल ही कहने में गौरवान्वित महसूस करते हैं। मौका था हॉस्टल के सोशल सेक्रेटरी और जनरल सेक्रेटरी का चुनाव। चार-पांच सीनियर्स और बाकी नए बैच के हम जैसे पंद्रह-बीस छात्रों ने ठान लिया कि इस बार हम हिदी के मसले को लेकर अपना प्रत्याशी खड़ा करेंगे।
असल में हम हॉस्टल में रहने लगे तो पता चला कि सभी छात्रों को एसी और डीसी समुदायों में बांटने सिलसिला वहां की परंपरा में है, जिसमें ए से अंग्रेजी और डी से देहाती हुआ करता था। सी का मतलब आप खुद समझ लीजिए, सभ्यता के तकाजे के चलते उसे मैं लिख नहीं सकता। कॉन्वेंट में पढ़े अफसरों या अमीर घरों से आए छात्र एसी कहलाते थे, जबकि हिंदी माध्यम से पढ़कर आए छात्र डीसी कहलाते थे। हमें यह नामकरण बड़ा अपमानजनक लगता था। इसीलिए हमने ठान ली कि इस बार हॉस्टल में सभी डीसी लोगों को एकजुट अपने ही बीच का सोशल सेक्रेटरी बनाएंगे।
सोशल सेक्रेटरी की खास अहमियत थी क्योंकि वही हर साल होनेवाले फेस्टिवल उदीसा में हॉस्टल का प्रतिनिधित्व करता था। हमने हिंदी के मसले पर चुनाव लड़ा और संख्या के बल पर चुनाव जीत भी गए। हालांकि चुनाव के ठीक पहले की रात दोनों ही पक्षों ने छात्रों को तोड़ने के लिए खूब जोड़तोड़ की। भेदिए लगाए गए। मुझ जैसे डीसी को एक सीनियर ने मॉडल्स की तस्वीरें दिखाईं और पूछा कि तुम इनमें से किसको पसंद करते हो। मैंने जब अपनी पसंद बता दी तो सीनियर ने कहा कि पसंद बताती है कि तुम डीसी नहीं हो। हमारी तरफ से मेधावी छात्रों ने बडी-बड़ी बातें करके एसी कैंप में फूट डाली और कामयाब भी रहे।
आखिरकार नतीजा आया तो डीसी प्रत्याशी भारी मतों के अंतर के साथ जीत गया। तय हुआ कि कुछ ही बाद होनेवाले उदीसा फेस्टिवल में वह अपना भाषण हिंदी में देगा। देश को गुलामी से लेकर आज़ादी के बाद तक देश को सबसे ज्यादा आईएएस देनेवाले म्योर हॉस्टल में आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ था। एसी लॉबी में खलबली मच गई। एक्स-म्योरियंस को बुलाया गया। उन्होंने अंग्रेजियत का ऐसा दबाव बनाया कि हिंदी के नाम पर जीते सोशल सेक्रेटरी के लिए जब उदीसा में बोलने की बारी आई तो उसने अंग्रेजी में भाषण दे डाला। हम सभी के लिए यह भारी पराजय थी। हॉस्टल के अधिकांश छात्रों ने उस पूरे समारोह का बहिष्कार कर दिया।
आज हिंदी दिवस के मौके पर उस वाकये की याद इसलिए क्योंकि मुझे लगता है कि तलवारें खींचकर या लामबंदी करके न तो अंग्रेजी को हटाना संभव है और न ही हिंदी को स्थापित करना। भाषा लंबे समय में स्थापित होती है और इसका निर्धारण जीवन स्थितियां ही करती हैं। सत्ता का जिस तरह से हस्तांतरण हमारे यहां हुआ है, उसे देखते हुए अनुवाद या सरकारी कोशिशों से हिंदी को हिंदुस्तान में जन-जन की भाषा नहीं बनाया जा सकता।
हां, हिंदी फिल्मों ने, टीवी सीरियलों ने और अब हिंदी टीवी न्यूज ने पूरे देश में हिंदी को ज्यादा ग्राह्य बना दिया है। हम भले ही बाज़ार को गाली दे लें, लेकिन बाज़ार भी हिंदी के मानकीकरण और विस्तार में मदद कर रहा है। माइक्रोसॉफ्ट से लेकर गूगल के प्लेटफॉर्म पर हिंदी का आना, यूनिकोड फॉन्ट का आना, हिंदी के ब्लॉगों की बढ़ती संख्या, विज्ञापनों में हिंदी और हिंग्लिश का बढ़ता चलन इस बात को स्थापित करने के लिए काफी हैं।
कुछ दिन पहले ही आईबीएम के सीईओ सैमुअल पामिसैनो ने टाइम्स ऑफ इंडिया में एक लेख लिखा था, जिसमें इंडिया ऑनलाइन सर्वे के हवाले से बताया था कि भारत में इंटरनेट इस्तेमाल करनेवालों के बीच अंग्रेजी की धाक बहुत तेज़ी से गिर रही है। साल भर पहले जहां 59 फीसदी लोग अंग्रेजी में ब्राउज करते थे, वहीं अब इनका अनुपात 41 फीसदी रह गया है। शायद भोमियो या अनुवाद का स्कोप तेज़ी से बढ़ रहा है।
हिंदी के साथ एक और समस्या है, जिस पर लोग कम ध्यान देते हैं। हिंदी की बहुत सारी बोलियां हैं – ब्रज से लेकर अवधी और भोजपुरी तक। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सिकुड़ने के साथ बोलियां मिट रही हैं। आज शहर में नौकरी कर रहा कोई परिवार अवधी में बात करना पसंद नहीं करता। ये अलग बात है कि भोजपुर भाषियों के साथ ऐसा नहीं है। मैं भाषाविद नहीं हूं। लेकिन मुझे लगता है कि अपनी बोलियों और उत्तर भारत की भाषाओं के साथ एकीकरण के बिना हिंदी को स्वीकार्य और व्यापक नहीं बनाया जा सकता।
अंत में भाषा के राष्ट्रीय आग्रह के बारे में एक छोटा-सा अनुभव सुनाना चाहता हूं। जर्मनी से लौटने के दौरान सभी मित्र एक-दूसरे से अपने पतों का आदान-प्रदान कर रहे थे। इसी में चीन का भी एक मित्र था। मैंने सभी को अपना भारतीय पता अंग्रेजी में लिखकर दिया था। भारत पहुंचकर मैं एक दिन अपनी डायरी देख रहा था तो मैंने पाया कि चीन के उस मित्र ने तो अपना पता चीनी भाषा में लिखा है, बस फोन नंबर और पिन कोड ही अंग्रेजी में हैं।

ये हिंदी की लड़ाई थी ही नहीं



हिंदी की लड़ाई 

इसे हिंदी की लड़ाई कहा जा रहा था। कुछ तो हिदुस्तान की लड़ाई तक इसे बता रहे थे। देश टूटने का खतरा भी दिख रहा था। लेकिन, क्या सचमुच वो हिंदी की, हिंदुस्तान की लड़ाई थी। दरअसल ये राजनीति की बजबजाती गंदगी को हिंदी की पैकिंग लगाकर उस बजबजाती राजनीति को सहेजने के लिए अपने-अपने पक्ष की सेना तैयार करने की कोशिश थी। 


अब सोचिए भला देश अबू आजमी को लेकर संवेदनशील इसलिए हो गया कि हिंदी के नाम पर आजमी ने चांटा खाया। सोचिए हिंदी की क्या गजब दुर्गति हो गई है कुछ इधर कुआं-उधर खाई वाले अंदाज में। उसको धूल धूसरित करने खड़े हैं राज ठाकरे और उसको बचाने खड़े हैं अबू आजमी। जबकि, सच्चाई यही है कि न तो राज ठाकरे की हिंदी से कोई दुश्मनी है न अबू आजमी को हिंदी से कोई प्रेम।


ये दो गंदे राजनेताओं की अपनी जमीन बचाने के लिए एक बिना कहा समझौता है जो, समझ में खूब ठीक से आ रहा है। समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अबू आजमी के रिश्ते देश के दुश्मन दाऊद इब्राहिम से होने की खबरों के ठंडे हुए अभी बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ और न ही इसे ज्यादा समय बीता होगा जब मराठी संस्कृति के नाम पर भारतीय संस्कृति तक को चुनौती देने वाले राज ठाकरे गर्व से पॉप स्टार माइकल जैकसन की गंधाती देह के दर्शन के लिए आतुर थे।


हिंदी न इनकी बेहूदी हरकतों से मिटेगी न बचेगी। कभी-कभी कुछ सरकारी टाइप के लगने वाले बोर्ड बड़े काम के दिखते हैं। रेलवे स्टेशन पर हिंदी पर कुछ महान लोगों के हिंदी के बारे में विचार दिखे जो, मुझे लगता है कि जितने लोग पढ़ें-सुनें बेहतर। उसमें सबसे जरूरी है भारतीय परंपरा के हिंदी परंपरा के मूर्धन्य मराठी पत्रकार बाबूराव विष्णु पराड़कर जी का हिंदी पर विचार। पराड़कर जी की बात साफ कहती है हिंदी हमारे-आपके जैसे लोगों की वजह से बचेगी या मिटेगी। बेवकूफों के फेर में मत पड़िए
















बतंगड़ BATANGAD

हिंदी की लड़ाई अपने ही सांस्थानिक ढांचों से है: उदय प्रकाश


हिंदी की लड़ाई अपने ही सांस्थानिक ढांचों से है: उदय प्रकाश

♦उदय प्रकाश♦
सारे पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों को छोड़ कर इस सच को अब मान ही लेना चाहिए कि ‘हिंदी’ एक बहुत अधिक समस्याग्रस्त शब्द है। यह उतना निरापद और एकार्थी, सीधा-सादा और निर्दोष, सर्वानुमोदित और निर्विवाद शब्द नहीं है, जैसा इसके समर्थक और हिंदी से जुड़े राजकीय अथवा निजी संस्थान या व्यावसायिक उद्यम, जिसमें कई तरह के हित-समूहों के वर्चस्व के अधीन अखबार और मीडिया चैनल भी शामिल हैं, अपने-अपने विद्वानों के साथ दावा करते रहते हैं।
हिंदी कोई ऐसी भाषा नहीं है, जो अपने विकास के किसी चरम को हासिल कर चुकी है और अब हमेशा के लिए जड़ीभूत हो कर स्थिर हो चुकी है। यह न संस्कृत की फॉसिल (जीवाश्म) है, न अन्य जीवित देशी-विदेशी-इलाकाई भाषाओं के साथ लगातार और रोजाना सहवास से अपवित्र और कुलटा हो चुकी उसका ऐसा ‘अपभ्रंश’, जिसे दैवी तत्सम के मंत्रोच्चार से पवित्र बनाने का राजसूय यज्ञ इसके राज-पुरोहित करने में खुसरो-भारतेंदु-प्रेमचंद युग से लेकर आजतक लगे हुए हैं।
यानी तबसे, जब से यह भाषा किसी कदर आधुनिक होकर जीवित ‘जनभाषा’ हो पाने के अपने अनिवार्य संघर्ष में पहली बार कभी सक्रिय हुई थी। इसके व्यावहारिक शब्दकोष में अब हर रोज इतने परदेशी और विजातीय शब्द सम्मिलित हो रहे हैं कि इसे थामा नहीं जा सकता। इसे न हिब्रू बना कर संरक्षित किया जा सकता है, न जेड या अवेस्ता। असली हिंदी जीवित जन-भाषा के रूप में बचे रहने के लिए प्राणपन से जूझ रही है।
हिंदी की पहली अहम लड़ाई उसके अपने ही सांस्थानिक ढांचों, जो प्रतिगामिता और अतीतजीवी जड़ता के असली अड्डे या ‘मठ’ हैं, के साथ है। ठीक इसी तरह, इतनी ही गंभीर और निर्णायक लड़ाई इस भाषा की अपनी ही बद्धमूल अवधारणाओं और लगभग अंतिम तौर पर परिभाषित कर डाली गईं उन व्याख्याओं-विधानों-संहिताओं-प्रत्ययों के साथ है, जो और कुछ नहीं, इस भाषा के ही भीतर प्रच्छन्न रूप में सक्रिय हिंदीभाषी पट्टी की सामाजिक-जातीय-क्षेत्रीय संरचनाएं हैं। इन संरचनाओं की शिनाख्त और इनको समझे बिना किसी ‘भाषा’ के रूप में हिंदी के बारे में कोई वास्तविक विमर्श मुमकिन नहीं है।
बीसवीं सदी में प्रख्यात भाषा-चिंतक वोलासिनोव, जिन्हें हम बाख्तिन के नाम से भी जानते हैं, ने किसी भी भाषा के हर शब्द को एक ऐसा संकेतक माना था, जो उस भाषा को बोलने वाले अलग-अलग वर्गों-समूहों को अलग-अलग, और अक्सर अंतर्विरोधी संकेत देता था। यानी किसी भी ‘शब्द’ का कोई भी एक ‘अर्थ’ सर्वानुमोदित, वर्गातीत और समाज-निरपेक्ष नहीं होता। जब कोई भी समाज अपने परिवर्तन के सबसे उथल-पुथल से भरे अतिसंवेदनशील और परिवर्तनकारी दौर में दाखिल होता है तो किसी भी भाषा का हर शब्द उन्हीं परस्पर विरोधी टकराहटों का केंद्र या नाभिक बन जाता है, जिन टकराहटों और अंतर्विरोधों से वह समाज गुजर रहा होता है।
इतिहास गवाही देता है कि अठारहवीं सदी में फ्रांस में निरंकुश राज्यतंत्र को सत्ता से अपदस्थ करने वाला लोकतंत्र तब जन्मा था, जब ‘भूख’ जैसे मामूली और बुनियादी मानवीय शब्द का अर्थ राजा-रानियों के लिए ‘केक’ और गरीब जनता के लिए ‘रोटी’ हो गया था। एक ही भाषा के बिल्कुल साधारण और निरापद से लगने वाले शब्द ‘भूख’ के भीतर मौज़ूद दो अलग-अलग विरोधी संकेतों के ऐतिहासिक, सभ्यतामूलक महासमर के रक्तपात के बीच ही उस सन् 1789 वाले महान लोकतंत्र का जन्म हुआ था, जिसमें हम आज भी रह रहे हैं।
आज भी हम जिन संकेतों अथवा शब्दों को अच्छी-खासी लापरवाही और बिना दुविधा के इस्तेमाल करते हैं, मसलन- ‘विकास’, ‘अधिकार’, ‘संपन्नता’, ‘शिक्षा’, ‘चिकित्सा’, ‘घर’ आदि, वे भी एकार्थी और सर्वानुमोदित या लोकानुमोदित नहीं हैं। इन सारे शब्दों के भीतर अर्थों-अभिप्रेतों के विकट अंतर्विरोध हैं। ‘केक’ और ‘रोटी’ की तरह ही, आर्थिक असमानता की हर रोज दुर्लंघ्य होती जाती खाई और अलग-अलग जातीय-वर्गीय समुदायों के बीच लगातार बढ़ी टकराहटों की वजह से, आज हिंदी भी गृहयुद्ध की स्थिति में हैं।
सच तो यह है कि आज की व्यवहार में आने वाली हिंदी का कोई एक रूप नहीं है। इसमें इलाकाई ही नहीं, जातीय भिन्नताएं भी बहुत हैं, जो मीडिया और उच्च-वर्गीय साहित्यिक-सांस्कृतिक अथवा राजकीय हिंदी में भले ही न दिखता हो, लेकिन सृजनात्मक लेखन और बोल-चाल के धरातल पर आते ही, उसकी विविधता सामने आ जाती है। इस विविधता को सपाट नहीं किया जा सकता। यह न सिर्फ अलोकतांत्रिक होगा, बल्कि बहुतेरे कारणों से हर रोज बदलती हिंदी के विकास के विरुद्ध यह एक प्रतिगामी कदम होगा।
सबसे बड़ी और क्षेत्र-जाति-धर्म बहुल भाषा होने के कारण ‘हिंदी’ अब निस्संदेह ‘पानीपत का मैदान’ या ‘महाभारत का कुरुक्षेत्र’ बन चुकी है। याद रखें, भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम ही नहीं, एक मानवीय संसाधन भी है, जिस पर किसी भी अस्मिता या जाति के एकाधिकार को लंबे समय तक बनाए रखने की कोई भी दुरभिसंधि, वह चाहे जिन उदार, आधुनिक या प्रगतिशील मुखौटों के साथ प्रस्तुत हो, पहले की तरह अब अगोचर नहीं रह सकती। इसका छद्म उघड़ चुका है और यह अब भाषा के भीतर किसी भी प्रतिगामी और दकियानूस, लेकिन फिर भी वर्चस्वशील भ्रष्ट और क्रूर सत्ता-संरचना के रूप में पहचानी जा चुकी है।
संयोग से वर्णाश्रम व्यवस्था की मध्यकालीन सामंती संस्कारों और जातीय बनावट में आज भी जी रहे हिंदी-समाज की भाषा हिंदी ही है, जो एक तरफ अब इस दायरे से बाहर निकल कर अन्य समाजों की ओर और दूसरी तरफ देश के अन्य सार्वजनिक संसाधनों (जिनमें से एक भाषा भी है) और अवसरों पर लोकतांत्रिक अधिकारों और बहुसंख्यक जातीय समुदायों की आनुपातिक साझेदारी के लिए बढ़ते दबावों को झेल रही है।
साहित्य, संस्कृति, शिक्षा और जन-संचार माध्यमों के इलाकों में किसी एक या एकाधिक खास जातियों की अब तक चली आ रही इजारेदारी के सामने यह पहली बड़ी ऐतिहासिक चुनौती का समय है। अपने हितों और लंबे निरंकुश भ्रष्ट शासन की हिफाजत में विचारधाराओं और छद्म राष्ट्रवाद से लेकर धर्म और संस्कृति जैसे तमाम महावृत्तांतों के वागाडंबर से खड़ी की जा रही इसकी भ्रष्ट किलेबंदी के विरुद्ध अब किसी एक वास्तविक भाषाई जन-लोकपाल की प्रतीक्षा है, जो इस भाषा पर भ्रष्ट जातिवादी वर्चस्व को तोड़ सके।
अभी दो-तीन साल पहले हिंदी के व्यावहारिक-रोजमर्रा के जीवन में इस्तेमाल होने वाली साझी-शब्दावली या ‘शेयर्ड वोकेबुलरी’ में अंग्रेजी और अन्य विजातीय (विदेशी नहीं) शब्दों की बेतहाशा बढ़ती जाती संख्या के भय में ‘हिंदी के क्रियोलीकरण’ का मुद्दा बहुत जोर-शोर से उठाया गया था। यह निरर्थक था। सबसे अधिक भय अंग्रेजी के प्रति पैदा किया जा रहा था। अगर ध्यान से देखें तो स्वयं अंग्रेजी भी आज अन्य भाषाओं के शब्दों से अटी पड़ी है।
अब यह ब्रिटिश राज की शाही और पवित्र अंग्रेजी नहीं है, जिसके पुरोधा नीरद सी. चौधरी जैसे लोग माने जाते थे, अब अंग्रेजी आप्रवासियों ही नहीं, उन सभी देशों-समाजों की भाषाओं के शब्दों की भीड़ से घिर चुकी है, जहां-जहां वह विश्व-भाषा और अंतरराष्ट्रीय व्यापार की भाषा होने के कारण पहुंच रही है। पॉपुलर कल्चर, कालसेंटर और आउटसोर्सिंग ने खुद अंग्रेजी को बदल डाला है। यही अंग्रेजी के लगातार विकसित होने की वजह और शक्ति भी है। सवर्ण पारंपरिक तत्सम प्रधान हिंदी अगर देखें तो खुद संस्कृत का क्रियोल है और इसकी वर्जनाएं इसकी अधोगति और जड़ता का कारण बनेंगी।
ऐसा ही एक मुद्दा ‘लिपि’ को लेकर भी है। क्या आज की विस्तृत होती, अन्य भाषाई-सांस्कृतिक इलाकों और देशों तक पहुंचती जाती हिंदी को सिर्फ किसी एक लिपि में कैद रखा जा सकता है ? यूनिकोड और मोबाइल-नेट की नई संस्कृति की नई दखल ने हिंदी की लिपि-बद्धता की सीमाओं को लांघना और तोडऩा शुरू कर दिया है।
यह सच है कि अभी तक किसी भी भाषा की लिपियां और उसकी वर्णमालाएं महज किसी भाषा को लिखित में संरक्षित करने का माध्यम या उपकरण भर नहीं, बल्कि जातीय-सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक भी थीं। लेकिन आज हम जिस सार्वभौमिक यथार्थ के सामने हैं, उसने अपने लिए एक अनोखी और ऐतिहासिक दृष्टि से अभूतपूर्व ‘लिपि-संसार’ का निर्माण भी करना शुरू कर दिया है। हम अब सिर्फ आर्थिक-राजनीतिक ग्लोबल-गांव में ही नहीं रह रहे हैं, बल्कि धीरे-धीरे ‘ग्लोबल-लिपिग्राम’ के वाशिंदे भी होते जा रहे हैं। दूसरे कई देशों की लिपियां अपनी मूल भाषाई परिवार और अब तक जड़ीभूत हो चुकी सांस्कृतिक-चिन्हों को छोड़ कर, दूसरी, विजातीय लिपियों को अपनाने लगी हैं।
अगर आपको याद हो तो जब तुर्की के आधुनिक और लोकप्रिय नेता कमाल अतातुर्क ने तुर्क-भाषा को उसकी पुरानी मध्यपूर्वी अरबी-फारसी लिपि से मुक्त करके, आधुनिक पश्चिमी यूरोप की रोमन लिपि से जोड़ा था और इसके लिए सख्त राजकीय आदेश निकाले थे, तब उनका धार्मिक कट्टरपंथियों ने बहुत विरोध किया था। लेकिन अगर तुर्क-भाषा पश्चिमी लिपि से जुड़ कर आधुनिक न हुई होती तो उसमें क्या नाजिम हिकमत जैसे कवि और ओरहान पामुक जैसे नोबेल पुरस्कार प्राप्त कथाकार हो पाते। यह प्रक्रिया आज और भी तेज है।
अल्जीरिया और मोरक्को जैसे देश भी अपनी भाषाओं के लिए अरबी को छोड़कर रोमन अपना रहे हैं। सबसे रोचक और ताजा उदाहरण तो चेचन्या का है, जहां जब तक रूस का दबदबा रहा, उसकी भाषा की लिपि ‘क्रिलिक’ थी, जिसमें रूसी भाषा लिखी जाती थी, आजाद होने के बाद वहां भी रोमन अपनाई जा चुकी है।
हिंदी के साथ भी यह होगा। ऐसा होना भी चाहिए तभी यह मात्र एक-दो जातियों की औपनिवेशिक दासता की जंजीरों से मुक्त होकर आधुनिक संसार में सांस ले सकेगी।
(साभार- दैनिक भास्कर, 17 सितंबर 2011)

सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

हिन्दू धर्म का इतिहास

हिन्दू धर्म का इतिहास

हिन्दू मापन प्रणाली
हिन्दू धर्म का इतिहास अति प्राचीन है। इस धर्म को वेदकाल से भी पूर्व का माना जाता है, क्योंकि वैदिक काल और वेदों की रचना का काल अलग-अलग माना जाता है। यहां शताब्दियों से मौखिक परंपरा चलती रही, जिसके द्वारा इसका इतिहास व ग्रन्थ आगे बढ़ते रहे। उसके बाद इसे लिपिबद्ध करने का काल भी बहुत लंबा रहा है। हिन्दू धर्म के सर्वपूज्य ग्रन्थ हैं वेद। वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल का आरंभ ४५०० ई.पू. से माना है। यानि यह धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: पहले वेद को तीन भागों में संकलित किया गया- ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद जि‍से वेदत्रयी कहा जाता था। मान्यता अनुसार वेद का वि‍भाजन राम के जन्‍म के पूर्व पुरुरवा ऋषि के समय में हुआ था। बाद में अथर्ववेद का संकलन ऋषि‍ अथर्वा द्वारा कि‍या गया। वहीं एक अन्य मान्यता अनुसार कृष्ण के समय में वेद व्यास ने वेदों का विभाग कर उन्हें लिपिबद्ध किया था। इस मान से लिखित रूप में आज से ६५०८ वर्ष पूर्व पुराने हैं वेद। श्रीकृष्ण के आज से ५३०० वर्ष पूर्व होने के तथ्‍य ढूँढ लिए गए हैं।
हिंदू और जैन धर्म की उत्पत्ति पूर्व आर्यों की अवधारणा में है जो ४५०० ई.पू. मध्य एशिया से हिमालय
चित्र:Rigvedic geography.jpg

ऋग्वेद का भूगोलीय क्षितिज (जिसमें नदियों के नाम एवंसीमेटरी एच दिये हैं। ये हिन्दूकुश और पंजाब क्षेत्र से ऊपरी गांगेय क्षेत्र तक फैला हुआ था।
तक फैले थे। आर्यों की ही एक शाखा ने पारसी धर्म की स्थापना भी की। इसके बाद क्रमश: यहूदी धर्म दो हजार ई.पू.,बौद्ध धर्म पाँच सौ ई.पू., ईसाई धर्म सिर्फ दो हजार वर्ष पूर्व, इस्लाम धर्म आज से १४०० वर्ष पूर्व हुआ।
धार्मिक साहित्य अनुसार हिंदू धर्म की कुछ और भी धारणाएँ हैं। मान्यता यह भी है कि ९० हजार वर्ष पूर्व इसका आरंभ हुआ था। रामायण, महाभारत और पुराणों में सूर्य और चंद्रवंशी राजाओं की वंश परम्परा का उल्लेख उपलब्ध है। इसके अलावा भी अनेक वंशों की उत्पति और परम्परा का वर्णन आता है। उक्त सभी को इतिहास सम्मत क्रमबद्ध लिखना बहुत ही कठिन कार्य है, क्योंकि पुराणों में उक्त इतिहास को अलग-अलग तरह से व्यक्त किया गया है जिसके कारण इसके सूत्रों में बिखराव और भ्रम निर्मित जान पड़ता है, फिर भी धर्म के ज्ञाताओं के लिए यह भ्रम नहीं है।
असल में हिंदुओं ने अपने इतिहास को गाकर, रटकर और सूत्रों के आधार पर मुखाग्र जिंदा बनाए रखा। यही कारण रहा कि वह इतिहास धीरे-धीरे काव्यमय और श्रृंगारिक होता गया जिसे आधुनिक लोग इतिहास मानने को तैयार नहीं हैं। वह समय ऐसा था जबकि कागज और कलम नहीं होते थे। इतिहास लिखा जाता था शिलाओं पर, पत्थरों पर और मन पर।
हिंदू धर्म के इतिहास ग्रंथ पढ़ें तो ऋषि-मुनियों की परम्परा के पूर्व मनुओं की परम्परा का उल्लेख मिलता है जिन्हेंजैन धर्म में कुलकर कहा गया है। ऐसे क्रमश: १४ मनु माने गए हैं जिन्होंने समाज को सभ्य और तकनीकी सम्पन्न बनाने के लिए अथक प्रयास किए। धरती के प्रथम मानव का नाम स्वायंभव मनु था और प्रथम ‍स्त्री थी शतरूपा। महाभारत में आठ मनुओं का उल्लेख है। इस वक्त धरती पर आठवें मनु वैवस्वत की ही संतानें हैं। आठवें मनु वैवस्वत के काल में ही भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार हुआ था।
पुराणों में हिंदू इतिहास का आरंभ सृष्टि उत्पत्ति से ही माना जाता है। ऐसा कहना कि यहाँ से शुरुआत हुई यह ‍शायद उचित न होगा फिर भी हिंदू इतिहास ग्रंथ महाभारत और पुराणों में मनु (प्रथम मानव) से भगवान कृष्ण की पीढ़ी तक का उल्लेख मिलता है।

हिंदू होने का धर्म : योगः कर्मसु कौशलम्‌



हिंदू होने का धर्म : योगः कर्मसु कौशलम्‌

सनातन धर्म में कर्म की बड़ी महत्ता है. कर्म को ही सबसे महान और बड़ा माना गया है. किसी भी भाग्य या भगवान से बड़ा केवल और केवल कर्म को माना गया है. तभी तो सनातन धर्म की दिशानिर्देशक किताबों में से एक भगवद्गीता में स्वयं योगेश्वर कृष्ण ने पूरा का पूरा अध्याय कर्मयोग को ही समर्पित कर दिया. उन्होंने घोषणा कर दी-कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन. इसका मतलब यह नहीं है कि हमें अकर्मण्यता का पाठ पढ़ाया गया है. यहां भावार्थ केवल यह है कि कर्म करना ही हमारे हाथ में है, उसका परिणाम क्या आएगा, इसकी चिंता करना हमारा काम नहीं है- यत्ने कृते यदि न सिद्धयते कुत्र दोषः- यानी प्रयत्न करने पर भी यदि लक्ष्य प्राप्त न हो, तो किसे दोष दिया जाए?
सनातन धर्म एक जीवनपद्धति है. यह कोई रूढ़ि नहीं है. इसका सीधा-सा मतलब है कि आप अपने काम को करें, वही आपका धर्म है. किसी भी पूजा पद्धति या कर्मकांड से अधिक इसमें कर्म पर ज़ोर दिया गया है-कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करै, सो तस फल चाखा-यानी इंसानों का सारा हिसाब-किताब यहीं इसी दुनिया में होना है. यहां इस बात से भ्रमित होने की ज़रूरत नहीं है कि सनातन धर्म में ही स्वर्ग और नरक की अवधारणा भी है. पहले भी बताया जा चुका है कि अपनी सतत गतिशीलता की वजह से ही सनातन धर्म में परस्पर कई विरोधी सिद्धांत भी मिलते हैं. उस पर बात फिर कभी. फिलहाल तो हम कर्म की प्रधानता पर चर्चा कर रहे हैं.
कर्म शब्द का मूल है कृ, जिसका अर्थ है-करना. कर्म वह क्रिया या काम है, जो हमारे पूरे जीवन को प्रभावित करता है. आजीवन कारण और परिणाम (कॉज़ एंड इफेक्ट) को निर्धारित करता है. यह हमारे विचार और भावनाओं को भी संप्रेषित करता है और हम जो कुछ भी चेतन अवस्था में करते हैं, वह सब हमारे कर्म ही तो हैं. कर्म ही आत्म (द सोल) के सांसारिक जीवनचक्र को निर्धारित करती है. हरेक स्तर पर क्रिया और प्रतिक्रिया- चाहे वह शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक हो- ही कर्म है. यह जान लेना बेहद ज़रूरी है कि कोई भी ईश्वर (मूर्त या अमूर्त) हमें कर्म की गठरी नहीं भेंट करता. यहीं पर सनातन धर्म के भाग्यवादियों को सावधान होने की ज़रूरत है. सनातन धर्म कभी भी हमें भाग्यवादी बनने की सीख नहीं देता. भाग्य जैसा कुछ होता ही नहीं, जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने भी कहा है कि भाग्य तो कायरों का हथियार है, बलशाली तो अपना भाग्य खुद निर्मित करते हैं. इसी बात को अल्लामा इक़बाल ने कुछ इस तरह कहा है- ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले ख़ुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है? इंसानों को उनकी स्वतंत्र इच्छा के मुताबिक ही काम करने के लिए भेजा गया है. हम ख़ुद अपना कर्म निर्मित करते हैं. सनातन धर्म के प्रमुख ग्रंथों में वेद आते हैं, जिसके अनुसार अगर कोई व्यक्ति अच्छे कर्म करता है, तो उसे परिणाम भी अच्छे मिलते हैं और बुरा कर्म करने पर उसका फल भी बुरा ही होता है-बोया पेड़ बबूल का, तो आम कहां से होय? कर्म इंसान के सभी कामों को पूर्णता में व्यक्त करता है. सनातन धर्म में यह भी सिद्धांत है कि हो सकता है कि कुछ कर्मों का फल तुरंत न मिले, लेकिन कभी न कभी जीवन के किसी मोड़ पर उसका फल हरेक व्यक्ति को भोगना ही पड़ता है. कर्म के इसी दर्शन से चार्वाक जैसे दार्शनिकों का नास्तिक दर्शन भी पैदा हुआ, जिन्होंने पुनर्जन्म जैसी मान्यताओं को धता बताते हुए इसी जीवन में सब कुछ भोगने और जी लेने की बात कही. कर्म के चक्र को बुद्धिमत्तापूर्ण कार्यों और वीतराग प्रतिक्रिया से ही जीता जा सकता है.
कठोरता गलत फलों को पैदा करती है, जिसे पाप कहते हैं और अच्छे कर्म मीठे फल देते हैं, जिसे पुण्य कहते हैं. व्यक्ति के जीवन का आधार इन दोनों का सम्यक संतुलन ही होता है.
गीता में कृष्ण ने कर्मयोग का सिद्धांत दिया है. निर्लिप्त रहकर कर्म करना एक बड़ी कला है, जिसे सीखना ही किसी व्यक्ति को महान बनाता है. इसी तरह से योग का चिंतन भी सनातन धर्म का अभिन्न हिस्सा है. सनातन धर्म की आध्यात्मिक धारा किसी भी इंसान के जीवन के सभी पक्षों को तय करती है. योग का अर्थ है जोड़ना. योग और कर्म जब मिल जाते हैं, तो उसी को कहते हैं कर्मयोग. कर्म को आध्यात्मिक स्तर पर जोड़ना ही कर्मयोग कहलाता है. वैसे तो, योग के चार प्रकार हैं. कर्मयोग के अलावा भक्तियोग (जिसमे व्यक्ति अपनी चेतना को आध्यात्मिक स्तर पर पारलौकिक तत्वों के चिंतन में लगाता है), राजयोग (जिसमें व्यक्ति अपनी सांसारिक जिम्मेदारियों को पूरा कर साधना की ओर उन्मुख होता है) और ज्ञान योग (जिसमें व्यक्ति गुरु के पास बैठ कर या किताबों की मदद से ज्ञान की साधना करता है) भी योग के ही प्रकार हैं. योग का सीधा सा मतलब आत्म का ब्राह्मण (परम तत्व) से एक हो जाना है. ब्राह्मण किसी जाति विशेष का परिचायक न होकर उस परम सत्ता, परम तत्व और पवित्र आत्मा का द्योतक है, जो लगातार प्रगतिशील है, लगातार बढ़ता है और जिसका कभी क्षरण नहीं होता. उस परम तत्व के अनुरूप जब हम अपने कर्मों को निर्धारित कर देते हैं, तो उसी को कर्मयोग कहते हैं और यही सनातन धर्म का मुख्य ध्येय है, जब हम राग और विराग से दूर वीतराग हो जाते हैं-निर्गुण, सगुण ते परे, तहां कबीरा ठाढ़.

हिंदू होने का धर्म : जाति की संकीर्णता वर्ण की वजह से नहीं


हिंदू होने का धर्म : जाति की संकीर्णता वर्ण की वजह से नहीं


सनातन धर्म का सबसे बड़ा अभिशाप जाति की दीवारों को माना जाता है, इसकी संकीर्णता को माना जाता है और जातिगत बंधनों को ही सनातन धर्म का सबसे बड़ा दोष और धब्बा भी माना जाता है. यह सत्य भी है. इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि वर्तमान जाति-व्यवस्था की बंदिशों और मानव-मानव के बीच भेदभाव ने सनातन धर्म के मूल तत्व पर ही प्रहार किया है और इसकी उदात्तता और उदारता पर ही प्रश्नचिह्न लगाया है. सवाल यह जायज भी है कि आखिर वसुधैव कुटुंबकम की बात करनेवाला धर्म अपने ही कुछ अनुयायियों को अस्पृश्य और त्याज्य क्यों मानता है.
धारणा यह है कि जाति व्यवस्था का यह वर्तमान स्वरूप वर्णाश्रम व्यवस्था की ही देन है. यह निहायत ही ग़लत अवधारणा है. इस पर चर्चा विस्तार से आगे. पहले तो यह जानें कि वर्ण क्या है. सनातन धर्म में कर्म के आधार पर मानव समुदाय को चार वर्णों में बांटने की व्यवस्था की गई-चातुर्वर्ण्यं मया स्रष्टं गुण-कर्म विभागशः (गीता)- जो कालांतर में जाति-प्रथा के ज़हर में बदल गई. वैसे कर्म के आधार पर केवल सनातन धर्म में ही मनुष्यों का विभाजन किया गया है, ऐसा नहीं है. यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने भी मनुष्यों की चार जातियों का उल्लेख किया है. इसी तरह पारसियों के सर्वोच्च धर्म ग्रंथ जेंद अवेस्ता में भी मनुष्यों की चार जातियों या वर्णों का उल्लेख है. अवेस्ता में इनके नाम आथ्रवन (ब्राह्मण), रथैस्तार (क्षत्रिय), वारस्त्रयोष (वैश्य) और हुतोक्ष (शूद्र) हैं. सनातन धर्म में जिस तरह द्विजों का उपनयन संस्कार होता था, उसी तरह पारसियों में भी नवजोत (नवजात) संस्कार किया जाता है. इसमें उऩको मेखला, पवित्र कुरता और टोपी पहनाई जाती है. कहने का मतलब यह कि समाज की व्यवस्था को सुचारू रूप से बनाए और चलाए रखने के लिए सनातन धर्म के अलावा भी कई समाजों में वर्ण के आधार पर मनुष्य को विभाजित करने का रिवाज था.
ठीक इसी तरह, वर्ण व्यवस्था को जाति का पूरक मान लेना भी ग़लत होगा. ऋग्वेद या कहें वैदिक काल तक तो सनातन धर्म त्रिवर्णी ही था. ऋग्वेद में शूद्र शब्द का इस्तेमाल केवल एक बार हुआ है, वह भी पुरुष सूक्त में. वेदों और उपनिषदों का रहस्य उद्घाटित करनेवाले जर्मन विद्वान मैक्समूलर और कोलब्रुक दोनों ही पुरुष सूक्त को क्षेपक (बाद में जोड़ा गया) मानते हैं. इन दोनों ही मनीषियों के अनुसार पुरुष सूक्त की भाषा और शैली इसे ऋग्वेद से अलग खड़ा करती है. इसी तरह राजन्य शब्द का भी प्रयोग ऋग्वेद में एक ही बार हुआ है. ठीक इसी तरह रंग के आधार पर मनुष्यों के वर्ण का निर्धारण महाभारत काल में ही किया गया है. इसी में बताया गया है कि क्षत्रिय लाल रंग के, ब्राह्मण गौर वर्ण के और शूद्र काले रंग के होते हैं. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ऋग्वेद काल तक सनातन धर्म में त्रिवर्णों का ही उल्लेख था. साथ ही, वर्ण व्यवस्था में शूद्रों को सबसे नीचे का और अधिकाधिक बंधनों का पायदान भी मनुस्मृति के बाद ही दिया गया. मनुस्मृति में ही यह तय कर दिया गया कि शूद्रों का काम केवल द्विजों की सेवा करना है, ब्राह्मण अपनी मर्जी से जब और जहां चाहें, शूद्रों को भेज सकते हैं और जितनी चाहें उतनी ताड़ना कर सकता है. आज के दौर तक आते-आते निश्चय ही जाति-व्यवस्था अपने सबसे गर्हित और पतनशील रूप में दिखाई पड़ती है. कैसी अचरज की बात है कि जो सनातन धर्म अपने अनुयायियों को चिंतन और वाणी की पूरी स्वतंत्रता देता है, वही सनातन धर्म व्यवहार के स्तर पर बिल्कुल कठोर है. कोई भी सनातनी व्यवहार और कर्म के स्तर पर जाति-प्रथा की अवहेलना नहीं कर सकता. सबसे निंदा की बात यह है कि शुरुआती चार वर्णों से आज शताधिक जातियां बन गई हैं, और उनमें अंत्यज औऱ अस्पृश्य भी शामिल हैं.
एक बात औऱ गौर करनेवाली यह है कि वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था अपने शुरुआती रूप में काफी लचीली थी. तभी तो ऋग्वेद के दशम मंडल के 102वें सूक्त का ऋषि कहता है-मैं कवि हूं, मेरा पिता वैद्य है और मेरी मां पिसान करती है. इसी तरह एक ही क्षत्रिय गाधि(पुरुरवा के वंशज) के पुत्र विश्वामित्र तो क्षत्रिय ही रहे, लेकिन उनके जामाता ऋचीक ब्राह्मण थे. इसी तरह गाड़ीवान रैक्व को भी उपनिषदों का ऋषि माना गया है. यहां तक कि जाबाला पुत्र सत्यकाम को भी ब्रह्मविद्या के रहस्य का उद्घाटन करने लायक माना गया है, जबकि उनकी माता जाबाला को ही यह नहीं पता था कि वह किस पुरुष के औरस से पैदा हुए हैं. वेदकालीन राजा सुदास शूद्र थे और वह राजर्षि विश्वामित्र के संरक्षक थे. सुदास ने अश्वमेध भी किया था, इसका भी उल्लेख आया है. ऐसे कई उदाहरण उपनिषदों, वेदों और पुराणों में मिल जाते हैं. कहने का मतलब यह कि प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था का यह घटिया स्वरूप देखने को नहीं मिलता था, जो आज चारों ओर से सनातन धर्म को अपनी जकड़ में लिए हुए है. कोई भी व्यक्ति किसी भी जाति से दूसरी जाति में संक्रमण कर सकता था और उसकी जाति का निर्धारण मुख्यतः उसके कर्म से ही होता था.
गंगा भी इलाहाबाद औऱ पटना आकर काफी दूषित हो जाती है, किंतु उसमें गंगा के उद्गम का तो कोई दोष नहीं. यही बात सनातन धर्म के साथ भी है. जाति प्रथा पर विस्तार से चर्चा अगले अंकों में.