गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

ओसामा की मौत, शर्मसार हुआ पाक


अमेरिका पर 11 सितंबर के आतंकवादी विमान हमले के बाद से पाकिस्तानी नेता अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन के अपने मुल्क में मौजूद होने की बात को जोरदार तरीके से खंडन करते रहे हैं, लेकिन उसके एबटाबाद में मारे जाने की अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की घोषणा से उन्हें अब शर्मसार होना पड़ रहा है।

ओबामा ने सोमवार को यह घोषणा कर पाकिस्तानी नेताओं को शर्मसार कर दिया कि दुनिया का सबसे वांछित आतंकवादी पाकिस्तान में मिलिटरी एकेडमी के पास स्थित एबटाबाद शहर में स्थित एक परिसर में मारा गया है।

पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी, प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी, गृहमंत्री रहमान मलिक और पूर्व सैन्य शासक परवेज मुशर्रफ सहित यहाँ के अन्य नेताओं ने ओसामा के उनके मुल्क में मौजूद होने के बारे में अमेरिकी खुफिया जानकारी से इनकार किया था। (भाषा)

पाक में है दुनिया का सबसे खतरनाक स्थान


पेंटागन के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा है कि पाकिस्तान का सीमावर्ती इलाका दुनिया का सबसे खतरनाक स्थान है और संघीय प्रशासित कबायली क्षेत्र खतरनाक वैश्विक जिहाद के सबसे बड़े केन्द्र बने हुए हैं। राष्ट्रपति बराक ओबामा और पाकिस्तानी अधिकारियों ने भी हाल ही में पाक सीमाई क्षेत्र को 'दुनिया के सबसे खतरनाक स्थान' की क्षेणी में रखा है।

खुफिया रक्षा अवर सचिव माइकल विकर्स ने बताया कि पाकिस्तान के संघीय प्रशासित कबायली इलाके फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरियाज वैश्विक जिहाद के सबसे खतरनाक केन्द्र हैं।

नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी में इस सप्ताह के शुरू में विकर्स ने एक सम्मेलन में कहा कि यहां पर सक्रिय संगठन जैसे तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, हक्कानी नेटवर्क और कमांडर नजीर ग्रुप आदि ने न केवल अलकायदा को सुरक्षित पनाह दी बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए एक साझे लक्ष्य पर काम किया कि क्षेत्र से अलकायदा के पैर उखड़ने के बाद भी यह क्षेत्र आतंकवाद से लड़ाई में अमेरिका के लिए मुख्य केंद्र बना रहे।

उन्होंने कहा कि अलकायदा एक परजीवी है जो बिना किसी पालक के जीवित नहीं रह सकता। उन्होंने कहा कि परजीवी अपने पालक को भी नुकसान पहुंचाता है। हाल के महीनों में हमने पाकिस्तान को याद दिलाया है कि उसके साथ हमारे संबंध बिना किसी तनाव या निराशा के हैं।

विकर्स ने कहा कि मतभेदों के बावजूद अमेरिका अपने सहयोगी पाकिस्तान के साथ काम करता रहेगा और लगातार मिलकर अपने दुश्मनों के खिलाफ प्रयास करता रहेगा। (भाषा)

पाकिस्तान से आए हिन्दुओं की व्यथा



कहा- इस्लाम कबूल करने के लिए करते हैं मजबूर
पाकिस्तान में हिन्दुओं पर लगातार लटकते खतरे को महसूस करते हुए वहां से हाल ही में भारत आया 140 हिन्दुओं का एक समूह यहीं रह जाना चाहता है और राजधानी दिल्ली में अपना आशियाना बनाने की चाह रखता है।

पाकिस्तान के सिंध प्रांत से यह समूह पर्यटन वीजा पर भारत आया था। उनके वीजा की अवधि समाप्त हो चुकी है, लेकिन अब इस समूह के सदस्य अपने जन्मस्थान वापस नहीं जाना चाहते क्योंकि उनका मानना है कि पाकिस्तान में उनका भविष्य संकट में रहेगा।

इस हिंदू समूह में 27 परिवारों के सदस्य शामिल हैं और इन लोगों के वीजा की अवधि दो महीने पहले ही समाप्त हो चुकी है। ये लोग पाकिस्तान के हैदराबाद के पास मतियारी जिला स्थित एक गांव के निवासी हैं। इन लोगों का कहना है कि वे भारत में स्वयं को सुरक्षित महसूस करते हैं।

ये लोग उत्तरी दिल्ली स्थित मजनूं का टीला इलाके में एक संगठन की ओर से लगाए गए शिविरों में रह रहे हैं। इस समूह के बुजुर्गों, युवाओं और बच्चों की भारत सरकार से केवल एक ही अपील है कि उनकी वीजा अवधि को बढ़ा दिया जाए और शहर में उन्हें रहने की उचित व्यवस्था मुहैया कराई जाए।

सालों तक इंतजार के बाद पर्यटन वीजा पाने वाले इस 140 पाकिस्तानियों के समूह ने दो सितंबर को पैदल ही सीमा पार की और दो दिन पहले राजधानी दिल्ली पहुंचा।

एक गैर सरकारी संगठन से जुड़े गंगाराम का कहना है कि उन्होंने इस बारे में प्रधानमंत्री मनमाहेनसिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखा है, लेकिन दोनों के पास से अभी तक कोई जवाब नहीं आया है।

एक शिविर में अपने परिजनों और दोस्तों से घिरी, उनके लिए रोटियां सेंक रही 20 वर्षीय यमुना पाकिस्तान छोड़ने की अपनी कहानी सुना रही थी और उसकी आंखों में आशा की एक किरण थी कि कम से कम उसके बच्चों को तो शांतिपूर्ण वातावरण में बेहतर जीवन और शिक्षा मिल सकेगी।

अपने परिवार को भोजन परोसते हुए उसने बताया कि पाकिस्तान में कोई धार्मिक स्वतंत्रता नहीं है। हमें (हिन्दुओं) कभी पढ़ने की इजाजत नहीं मिली। हमें हमेशा निशाना बनाया जाता है। हम भारतीय वीजा के लिए इंतजार कर रहे थे ताकि यहां आकर बस सकें। हम बस वापस नहीं जाना चाहते।

डेरा बाबा धूनीदास की ओर से दिल्ली आए सभी 27 परिवारों को रहने के लिए अलग-अलग तंबू दिए गए हैं। समूह के कुछ युवकों ने तो आसपास की दुकानों में काम करना भी शुरू कर दिया है।

थोड़े समय के लिए स्कूल गई यमुना का कहना है कि इन परिवारों ने अपने घर, भूमि, मवेशी और बाकी सभी चीजें सिर्फ अपने मन में यह प्रार्थना करते हुए छोड़ दी कि ‘भारतीय हमारी मदद करेंगे।’ चन्द्रमा (40) ने यमुना की पाकिस्तान छोड़ने की दास्तान को कुछ यूं पूरा किया।

उन्होंने दावा किया कि कि बच्चे जब स्कूल गए तो उन्हें अलग बैठने के लिए कहा गया। उन्हें वहां पानी तक नहीं मिला। हम डर के साथ नहीं जीना चाहते। इसलिए हम पर्यटन वीजा पर यहां आ गए। उन्होंने कहा कि समुदाय अपने खर्चे खुद उठा सकता है, वह बस अपनी वीजा अवधि बढ़वाना चाहता है और रहने की जगह चाहता है ताकि उनके बच्चे फिर से अपनी शिक्षा शुरू कर सकें। 

इसी समूह का हिस्सा 13 वर्षीय आरती की कहानी किसी को भी भावुक कर सकती है। उसने कभी पढ़ाई नहीं की और उसने अपने दादा-दादी से हिन्दू मंत्र सीखे हैं। जब वह रसोई से छुट्टी पा जाती है तो अपने समूह के अन्य बच्चों को भी मंत्र सिखाती है। अपने भाई के साथ बैठी आरती ने बताया कि मैंने मंत्र सीखे हैं और चाहती हूं कि मेरे दूसरे साथी भी इसे सीखें।

आरती का भाई अपना नाम नहीं बताना चाहता था मगर पूछ रहा था कि वे ऐसा क्यों नहीं कर सकते, हिन्दू होने के बावजूद क्या हम भारत में नहीं रह सकते? उसने कहा कि हजारों की संख्या में बांग्लादेशी, नेपाली और तिब्बती भारत में रह रहे हैं। हम यहां क्यों नहीं रह सकते? सरकार को हमारे लिए व्यवस्था करनी चाहिए ताकि हम अपना जीवन यहां गुजार सकें। 

उसने कहा कि वहां हम शांति से कैसे रह सकते हैं, जबकि हर रोज कोई आता है और हमें इस्लाम कबूल करने के लिए कहता है। पाकिस्तान में अपने गांव में एक मैकेनिक का काम करने वाले सागर ने अपने पड़ोसी की बातों पर मुहर लगाते हुए कहा कि पर्यटन वीजा ही वहां से बाहर निकलने का एक मात्र रास्ता था।

उसने कहा कि हमारे गांव में कुछ लोग आकर हमें मारा करते थे। वह हमारे घरों से सामान उठाकर ले जाया करते थे। परिस्थितियां कभी बेहतर नहीं हुईं और न कभी होंगी। अब हम शांति से जीना चाहते हैं। क्रिकेट खेल रहा 12 वर्षीय अमर कहता है कि हम वापस नहीं जाना चाहते। मैं वापस जाने से डरता हूं। मैं यहीं रहना चाहता हूं। (भाषा)

पाकिस्तानी हिन्दुओं को लौटना ही होगा


सरकार ने मंगलवार को कहा कि भारत आए पाकिस्तान के कई हिन्दू और सिख नागरिक तीर्थयात्रा वीजा वैधता की अवधि समाप्त होने के बावजूद स्वदेश नहीं लौटे हैं और वीजा की अवधि बढ़ाने की मांग भारत सरकार से कर रहे हैं, लेकिन उन्हें पाकिस्तान लौटना होगा।

गृह राज्य मंत्री मुल्लापल्ली रामचंद्रन ने लोकसभा में प्रहलाद जोशी, हरि मांझी और हंसराज अहीर के प्रश्न के लिखित उत्तर में कहा कि समूहिक रूप से तीर्थयात्रा वीजा पर आए पाकिस्तानी नागरिकों को वीजा वैधता अवधि के भीतर अथवा विशिष्ठ मामलों में अल्पकालिक विस्तारित अवधि के भीतर पाकिस्तान लौटना होगा।

उन्होंने कहा कि हिन्दू और सिख समुदाय के पाकिस्तानी नागरिकों से वीजा अवधि बढ़ाने या लम्बी अवधि के वीजा (एलटीवी) के लिए आवेदन प्राप्त हुए हैं।

उन्होंने कहा कि धार्मिक स्थल देखने के लिए सामूहिक रूप से भारत आने वाले पाकिस्तानी नागरिकों को वीज़ा मंजूर करने के लिए निर्धारित शर्तो के अनुसार भारत में समूह में यात्रा करनी होती है और निर्धारित अवधि के भीतर पाकिस्तान लौटना होता है। (भाषा)

रविवार, 13 नवंबर 2011

‘शांति की देवी’ शर्मिला


‘शांति की देवी’ शर्मिला

तुम्‍हें शर्मिन्‍दा नहीं होना है
शांति की देवी शर्मिला
                                  -राकेश श्रीमाल
देह को मैंने अपने इस जीवन में कई दृष्टिकोणों से देखा-समझा है। खुद की देह से अनुभूत होकर और दूसरे की देह के माध्‍यम से। मुझे अक्‍सर अपनी देह से कम,दूसरों की देह से अधिक बहुआयामी अनुभव-अर्थ मिले हैं। मुझे इसीलिए रूपंकर कला की अपेक्षा प्रदर्शनकारी कलाओं में गहरी रुचि रही है। कथक मेरा सबसे प्रिय नृत्‍य है। लखन घराने के लच्‍छू महाराज(बिरजू महाराज के चाचा) के साथ तबला संगत करने वाले उस्‍ताद आफाक हुसैन की महफिलों में लखन कथक घराने पर कई सारी शामें कथक की इसी दुनिया के वैचारिक भ्रमण पर गुजारी हैं। मेरी कविताओं में अगर कहीं सौन्‍दर्य होता है तो वह बेशक कथक के ही समय-असमय अनुभूत हुए प्रभाव-प्रवाह ही हैं। कथक की अपनी अमूर्तता की तरह कविता का अमूर्त भाव मुझे सबसे अधिक खींचता है। दमयंती जोशी और सितारा देवी मेरी अपनी मनपसंद देह-उपस्थिति रही हैं। इन दोनों वरिष्‍ठ नृत्‍यांगनाओं के साथ कई बैठकों में हुई लंबी-लंबी औपचारिक-अनौपचारिक बातचीत मेरे अनुभव संसार का दुर्लभ खजाना है।
     देह को लेकर गरिमामय सम्‍मान सहित धैर्य हमेशा मेरा संगी रहा है। अस्‍ताद देबू की अमूर्त नृत्‍य-संरचनाओं से लेकर कोलकाता के पेन्‍टोमाइम आर्टिस्‍ट निरंजन गोस्‍वामी और चंद्रलेखा की देह-शोध पर आधारित नृत्‍य प्रस्‍तुतियों को देखना-समझना मेरे अपने जीवन का वैभव रहा है। सौभाग्‍य से इस मामले में मैंने अपने आप को कभी निर्धन नहीं समझा। ब.व.कारंत,फ्रिट्ज बेनेविट्स और अलखनंदन के रंग-निर्देशन में मुझे आंगिक पक्ष सबसे प्रिय रहा है। इस दुनिया का सारा वजूद, उसका इतिहास और उसकी समकालीन उपस्थिति मुझे इसी देह में बंधी दिखती है। विचारधाराओं, क्रांतियों और दौर-बदलाव को मैं इसी देह की उपज समझता हूँ। अपने इसी यथार्थवादी भ्रम से मुझे सुख भी मिलता है।
     मेरे लिए देह अपने आकार से अधिक निराकार में बसती है। यही देह मेरे लिए कभी शब्‍दों में ठिठकी खड़ी रहती है, कभी अपने आंगिक-वाचिक अभिनय में, तो कभी बेहद उल्‍लसित हो नृत्‍य-मुद्राओं में। तितली की देह तो मुझे जादू की तरह ही लगती रही है। किसी एक्‍वेरियम में मछलियों को देखते हुए मुझे देह की शास्‍त्रीय लयकारी से हर बार नया मृदुल परिचय मिलता रहा है। पूर्णिमा के बाद अपने ही आकार में मंथर गति से सकुचाती चंद्रमा की देह आज भी मेरे नितांत निजी अकेलेपन को अपने साथ बाँटने में ना-नुकुर नहीं करती।
     गांधी ने अपनी देह पर जितना प्रयोग किया है, क्‍या आज वैसा कोई करने का सोच सकता है.....मेरे अपने ही पास इसका उत्‍तर हाँ में है। इस 5 नवंबर 2011 को इस आत्‍म प्रयोग के लंबे 11 बरस पूरे हो रहे हैं। इरोम शर्मिला नामक वह अकेली देह अपने साथ जो प्रयोग कर रही है, वह अचम्भित कर देने वाला है। इरोम शर्मिला ने यह साबित कर दिया है कि एक अकेली देह किस तरह व्‍यापक जनसमाज की, उसकी संस्‍कृति की और उसकी अस्मिता की मूक अभिव्‍यक्ति बन सकती है। 21वीं सदी का यह समूचा शैशव अपने दिक्-काल की उस अविस्‍मरित कर देने वाली नृत्‍य-शिराओं को इरोम की देह में स्‍पंदित कर रहा है। इरोम की देह नैसर्गिक संपदा से भरी मणिपुर की जमीन बन गई है। उसी जमीन पर मणिपुर अपनी भोली-भाली और मातृभूमि से प्रेम करती जीवन की गति को बचाने में लगा हुआ है।
     इतिहास बताता है कि लाइमा लाइस्‍ना ने अपने पूर्ववर्ती राजा-रानियों की तरह मणिपुर में अपना राज्‍य स्‍थापित किया था। लाइमा और उनके भाई चिंगखुंग पौइरेथौन अपने स्‍वजातीय समुदाय के साथ पूरब के एक भूमिगत इलाके से आए थे। यह पौइरेथौन मणिपुर में अपने साथ पहली बार अग्निलाए थे। वह अग्नि विषम परिस्थितियों में आज भी इंफाल घाटी के गाँव आंद्रो में प्रज्‍वलित है।
     अग्नि के अपने चारित्रिक गुणों को चकमा देती इसी अग्नि की एक नन्‍हीं लौ इरोम शर्मिला की समूची देह में अपनी नीरवता के साथ उपस्थित है। अपने होने की तरफ ध्‍यान देने का विनम्र आग्रह करती हुई। अपनी बित्‍ते भर की रोशनी के चलते दुनिया-जहान को यह संदेश फैलाती हुई कि भरी-पूरी शांत जीवन शैली के साथ अमानवीयता हो रही है। भूमंडलीकरण में सिमट चुके ओर नित-नई तकनीकी से अपने आपको गर्वित करते समय में एक अकेली देह एक बडी लड़ाई लड़ रही है। उसकी देह में बसी जीभ की स्‍वाद ग्रंथि भी अपने कर्तव्‍य से निष्क्रिय होकर इस लड़ाई का दिशा-निर्देश कर रही है। उसकी देह की देखने की शक्ति ने तितलियों, हरी-भरी जलवायु और अपनी मातृभूमि के विशाल प्राकृतिक वैभव को देखे जाने की सहज इच्‍छा को फिलहाल बेरहमी से ठुकरा दिया है। ग्‍यारह वर्ष पहले का देखा हुआ संचित दृश्‍य-अनुभव ही उस देह की स्‍मृति में किसी बावली उपस्थिति बनकर वास करता है। स्‍त्री देह की प्रकृति का अपना मौसम,अपनी इच्‍छाएं और अपना ही नियंत्रण होता है। लेकिन उस अकेली देह में जिद से भरा एक तपस्‍या जैसा पवित्र नियंत्रण ही शेष बचा है। अपने जन-समाज की समवेत सहज जायज इच्‍छाओं को अपने में समेटे। इसे अन्‍ना हजारे के संक्षिप्‍त अनशन से तुलना करना नाइंसाफी होगा। अपने गहरे और गहन अर्थों में यह अन्‍न-जल त्‍याग का अनशन मात्र नहीं है। यह एक देह का आत्‍मीय उत्‍सर्ग है, अपनी इसी क्षणभंगुर देह के अध्‍यात्‍म के सहारे किया जा रहा पवित्र संघर्ष है। यह मणिपुर का समकालीन स्‍त्री युध्‍द है। स्‍त्री युध्‍द को मणिपुर मेंनूपीलोन कहा जाता है। वहाँ दो नूपीलोन बहुत प्रसिध्‍द हुए हैं। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि मणिपुर के दूसरे नूपीलोन को वर्ष 1939में शर्मिला की दादी ने देखा भी था। मणिपुरी महिलाओं के जुझारूपन पर मणिपुरी संस्‍कृति को भी गर्व है।
     शर्मिला को सगेम पोम्‍बा बहुत पसंद रही है। यह एक खास किस्‍म का व्‍यंजन होता है जो पानी में पैदा होने वाले पौधों, उनकी जड़ों, सोयाबीन, फलियों ओर खमीर से बनाया जाता है। लेकिन जैसा कि शर्मिला ने अपनी एक कविता की पंक्ति में लिखा है- मेरा मन मेरे शरीर के प्रति लापरवाह है। समझा जा सकता है कि उस शरीर ने ही उस मन को लापरवाह बनाया है।
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‘‘मैं केवल आत्‍मा नहीं हूँ। मेरा भी अपना शरीर है और उसकी अपनी हलचल है।’’  इरोम
     निश्चित तौर पर इरोम शर्मिला की देह उसकी आत्‍मा का सुरक्षा कवच नहीं है। अगर आत्‍मा कहीं होती है तो इरोम शर्मिला की आत्‍मा मणिपुर के समस्‍त फूलों, धान और शब्जियों के खेतों और दुब के हर एक तिनके में समाकर सहज-सरल जीवन जीते हुए सुरक्षित जीवन जीने की आकांक्षी है। कभी सना लाइबेक(स्‍वर्ण देश) कहा जाने वाला मणिपुर आज अपनी ही नाभि (यानी लांबा किला) से अपना ही गणतांत्रिक पुर्नजन्‍म लेने को अधीर है। मणिपुर की अधिकांश पहाड़ी जमीन पर ढलानों पर उतरती चढती हवाएं भी गोया अपना चैन सुकून पाने के लिए करबध्‍द प्रार्थना कर रही हैं।
     अतीत की सिहरती हवाओं से पता चलता है कि 17 वीं शताब्‍दी तक मणिपुर आत्‍मनिर्भर और सुदृढ राष्‍ट्र था। इतिहास की अनिवार्यता समझे जाने वाले युध्‍द तत्‍व का दंश भी इस देश ने सहा है। बर्मा के साथ इसके कई बार युध्‍द हुए। अठाहरवीं सदी के पूर्वाध्‍द में इसके काफी बड़े हिस्‍से पर बर्मा ने कब्‍जा कर लिया था। तब ईस्‍ट इंडिया कंपनी की मदद से महाराजा गंभीर सिंह ने घमासान लड़ाई लड़ते हुए अपने देश के हिस्‍से को बर्मा से छुडाया था। यहीं से ईस्‍ट इंडिया कंपनी की बुरी नजर इस पर लग गई। अंतत: 18 वीं शताब्‍दी के अंतिम दशक मेंएंग्‍लो-मणिपुर संग्राम में अंग्रेजों ने जीत हासिल कर ली। संक्षिप्‍त में यह जान लेना जरूरी है कि 19अगस्‍त 1947को गवर्नर-जनरल माउंटबेटन और तात्‍कालिक महाराज बोधचंद् के दरमियांन स्‍टैंड-स्टिल एंग्रीमेंट हुआ जिसमें मणिपुर को डोमेनियन दर्जा दिया गया। भारत और पाकिस्‍तान के बटंवारे के साथ 15अगस्‍त 1947 को मणिपुर एक स्‍वतंत्र देश घोषित कर दिया गया। तब बडे उत्‍साह के साथ कांग्‍ला फोर्ट मेंयूनियन जैक को हटाकर पाखांग्‍बा के चित्रवाला मणिपुरी ध्‍वज फहरा दिया गया।
     आज जिन दुरूह आंतरिक परिस्‍थतियों से मणिपुर जूझ रहा है दरअसल इसकी शुरूआत 21 सितम्‍बर 1949 को मणिपुर महाराज और भारत सरकार के साथ मणिपुर विलय समझोते पर हुए परस्‍पर हस्‍ताक्षरों के पीछे अदृश्‍य पार्श्‍व भूमिकाओं के साथ शुरू हो गई थी। इसमें भारत में सम्मिलित होने के प्रस्‍ताव की मंजूरी थी। 15 अक्‍तूबर 1949से यह समझौता लागू होना था। मणिपुर के जनमानस को इसमें षडयंत्र की बू नजर आई और यह विलय अपने होने के पहले से ही विवादस्‍पद हो गया। अपनी जमीन को अपना देश मानने वाली भावनाओं के साथ यह किसी खिलवाड से कम नहीं था। एक व्‍यापक जन भावना की लगभग अनदेखी करते हुए 26 जनवरी 1950 को मणिपुर भारत का प्रदेश घोषित कर दिया गया।
     अपनी ही जमीन, अपना ही पर्यावरण और अपनी ही संस्‍कृति के साथ रहते हुए वहाँ के जन-मानस के लिए यह किसी निर्वासन से कम हादसा नहीं था। भारत राष्‍ट्र और मणिपुर प्रदेश को एक दूसरे को समझने में लंबा समय लगना ही था। जाहिर है एक बडा जन आक्रोश इन सबके साथ पनप रहा था, जो अपनी पूर्ण स्‍वतंत्रता चाहता था। दो विश्‍वयुध्‍द देख चुका विश्‍व को नक्‍शा अपने इस छोटे भौगोलिक अंश को यह समझाने में नाकाम था कि उसे भारत जैसे राष्‍ट्र की सुरक्षा मे अपना अस्तित्‍व बचाए रखना है। जन-मानस का अपनी ही जमीन के प्रति प्रेम एक अरसे बाद कितना विषाक्‍त हो सकता है यह मणिपुर के प्रदेश बनने के बाद के दशकों में खोजा जा सकता है।
     यह एक निर्विवाद कटु सत्‍य है कि मणिपुर से आर्म्‍ड फोर्सेज स्‍पेशल पावर्स एक्‍ट को हटा लेना मात्र ही मणिपुर में शांति बहाल करने के लिए पर्याप्‍त नहीं है। तेजी से बदलते स्‍थानीय आंतरिक परिदृश्‍य ने प्रदेश बनने के चार दशकों में ही भूमिगत विद्रोहों की अच्‍छी-खासी संस्‍थागत श्रृंखलाओं की शुरूआत कर दी थी जो आज भी बदस्‍तूर जारी है। हालात इतने बदतर हैं कि सुरक्षाकर्मियों और विद्रोही भूमिगत संगठनों के आपसी घमासान में आम जन-मानस ही निशाने पर है। यह सुरक्षा प्रदान करने और स्‍वतंत्र होने की दबी इच्‍छा की इकलौती पतली झुलती रस्‍सी पर खेला जा रहा युध्‍द है जिसमें रक्‍त केवल और केवल मानवीयता का ही बह रहा है। शांति पाने की यह अदम्‍य इच्‍छा उस कस्‍तूरी मृग की तरह ही है जो कस्‍तूरी की चाह में इधर उधर कुलांचे मार रहा है, शायद यह जानते या नहीं जानते हुए कि वह तो उसकी नाभि में ही है।
     बात केवल राज्‍य वर्सेस विद्रोही संगठन की ही नहीं, इसमें कई और मुश्किल गांठे लग चुकी हैं। मसलन जल और उर्जा संसाधनों का गलत बटवांरा,सरकार द्वारा सार्वजनिक हित में आम लोगों की जमीन हड़पना और सबसे बढ़कर स्‍थानीय समुदायों के बीच का व्‍यापक एतिहासि तनाव। इन सब बड-खाबड विषम परिस्‍थतियों में इरोम शर्मिला की देह उस शांति की माँग कर रही है जो एक विस्‍तृत समाज विज्ञान की दूरबीन से देखने पर ही शायद दिखाई पड़ सकती है। पिछले तीन दशकों से दो दर्जन से अधिक विद्रोही भूमिगत संगठन इस जमीन पर अपना मोर्चा खोले हुए हैं। इनमें यू एन एल एफ सबसे बड़ा है। अन्‍य संगठनों मेंजौनी रिवल्‍यूशनरी आर्मीकुकी लिबरेशन आर्मी, नेशलन सोशलिस्‍ट कांउसिल आफ नागालैंड (आई.एम.), नेशनल सोशलिस्‍ट कांउसिल आफ नागालैंड (के.), खांग्‍लाइपाक कम्‍युनिस्‍ट पार्टी, रिवल्‍यूशनरी पीपुल्‍स फ्रंट, पी एल ए, प्रीपाक, कुकी नेशनल आर्मी और कुकी लिबरेशन आर्गेनाइजेशन मौजूद हैं। एक बडी माँग स्‍वतंत्र नागालिमयानी ग्रेटर नागालैंड की भी है जिसके खिलाफ यूएनएलएफ सक्रिय है। उसका मानना है कि इस माँग से मणिपुर का लगभग आधा हिस्‍सा नागालैंड में चला जाएगा। पिछली शताब्‍दी के अंतिम दशक से ही मणिपुर स्‍था‍नीय दंगों और त्रासद हिंसक वारदातों के बीच सांस ले रहा है। वहाँ अक्‍सर ही नागा-कुकी, कुकी-आओगी,कुकी-पाइले,मेइतेइ-पागांल और प्रोइतेइ-नागा संप्रदायों में आपसी मतभेद वहाँ की स्‍थानीय शांति को विध्‍वंस करते हुए रक्‍तरंजित साबित हुए हैं।
     निश्चित ही यह भयावह परिदृश्‍य है। सरकार सुरक्षा प्रदान करने की अपनी सरकारी पेशकश के साथ प्रस्‍तुत है जो यदा-कदा अमानवीय हो जाती है। एक तरह से सुरक्षा के नाम पर एक माफिया का जन्‍म विकराल रूप धारण कर चुका है। विद्रोही संगठन उस व्‍यवस्‍था से आर-पार की असफल लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे में इरोम शर्मिला की अकेली देह चुपचाप पवित्र यज्ञ की आहुति की तरह इसी काल चक्र में विनम्रता के साथ उपस्थित है। क्‍या इक्‍कीसवीं सदी में इरोम शर्मिला की शांति पाने की शौरहीन आर्तनाद किसी को सुनाई दे रही है...या वह शांति पाने की इच्‍छा मणिपुर के अपने विशिष्‍ट फूलों,धान और शब्जियों के रूप-गंध मे समाहित होकर अपने तई इसे बचाए रखने का प्रयत्‍न कर रही है।
     एक मणिपुरी लोककथा के मुताबिक डजीलो मोसीरो नाम की एक खूबसूरत स्‍त्री पर ईश्‍वर बादल की तरह मंडराया और अपनी बदलियों से भरी छाया उसके साथ छोड़ गया। फलस्‍वरूप उसके दो पुत्र हुए ओमेई(देवता) और ओकेह (इंसान)। उसी ओमेई के तीन बेटे हुए जो मेलेई,नागाओ और कोलाइर्म संप्रदायों में बटँकर आज आपस में ही लड़ाई कर रहे हैं। तब क्‍या मणिपुर की अशांति ईश्‍वर-प्रदत्‍त है..... 
     मणिपुर के अधिकांश देवी-देवता प्रकृति से जुडे हैं। वहाँ मानव शरीर के विभिन्‍न हिस्‍सों को लेकर मंदिर बने हुए हैं। मणिपुरी संस्‍कृति में नश्‍वर देह अपनी विशिष्‍ट अमरता के साथ लोक जीवन में व्‍याप्‍त है।सोराहेन वहाँवर्षा के देवता हैं। थौंगरेन को मृत्‍युदेव माना जाता है।माइरांग को अग्निदेवता माना जाता है। फाउबी देवी ने मणिपुर में जगह-जगह घूमकर खेती की कला फैलाई थी। एक प्रचलित लोक मान्‍यता है कि वह जहॉं भी जाती थी,अपना एक पति बना लेती थी। फाउबी स्‍वंय अपनी मृत्‍यु के बाद धान का पौधा बन गई। तब से उसे धान की देवीकहा जाता है।
     मणिपुर की शांति ओर सौहाद्रता चाहने वाले जन-मानस को अब यह समझ लेना चाहिए कि इरोम शर्मिला की देह अब शांति की देवीबन गई है। एक ऐसी शांति की देवी जो अपने को पूज्‍यनीय नहीं, केवल अपने माध्‍यम से सर्वत्र शांति को समझे जाने का निमित्‍त बनी हुई है। इरोम शर्मिला की देह में बसी उस शांति की देवी को राज्‍य, कानून, बुध्दिजीवी और समाज शास्त्रियों को संवेदनशील होकर समझना होगा। मणिपुर के लिए यह आंदोलन मात्र नहीं है,संस्‍कृति रक्षक आपात आवश्‍यकता है। इसे मणिपुर की स्‍थानीय आँख से ही देखा-समझा जाना चाहिए।
यह सुखद है कि राष्‍ट्रीय-अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर मानवाधिकारों को समर्पित संगठन इरोम शर्मिला के शांति-यज्ञ में शामिल हैं। संयुक्‍त राष्‍ट्र मानवाधिकार समिति, पीपुल्‍स युनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, इंडिया सोशल एक्‍शन फोरम जैसी कई संस्‍थाएं इसका समाधान चाहती हैं। लेकिन तब तक मणिपुर का अपना समाज शास्‍त्र अपने साथ कई उथल-पुथल मचा चुका होगा। मणिपुर का सबसे लोकप्रिय पर्व निगोल चौकाबा अपनी अहमियत को ही अंगूठा दिखाने लगा है। यह राखी जैसा ही पर्व होता है। इसमें भाई अपनी बहनों को अपने घर निमंत्रित करते हैं और उन्‍हें यथसंभव सम्‍मान देते हैं। लेकिन अब वहाँ भाई ही उस कानून के खिलाफ खड़े हो गए हैं जिसमें बहनों को भी पैतृक संपति का हिस्‍सेदार बनाए जाने का अधिकार है। यह काल के क्रूर पंजों से निकली विडम्‍बना नहीं तो और क्‍या है....
यह कितना दुखदायी है कि मई 2007में दक्षिण कोरिया के क्‍वांकतू शहर के नागरिकों ने जब इरोम शर्मिला को प्रतिष्ठित मानवाधिकार पुरस्‍कार दिया तब भारत सरकार ने शर्मिला को खुद वहाँ जाकर यह पुरस्‍कार स्‍वीकार करने की अनुमति नहीं दी। यह उल्‍लेखनीय है कि यह दक्षिण एशिया का सबसे प्रतिष्ठित मानवाधिकार पुरस्‍कार है। जो इरोम शर्मिला के पूर्व अफगानिस्‍तान की मलालाई जोया,एशियन हयूमन राइट्स कमीशन हागकांग के बेसिल फर्नाडों,श्रीलंका के मान्‍यूमेंट फार दि डिस्‍अपीयर्ड की डांदेनिया गमागे जयंती,इंडोनेशिया के अर्बन पुअर कंसोशिर्यम के वर्दाह हफीदज,पूर्वी तिमोर के क्‍सानाना गुस्‍माओं और म्‍यांमार की आंग सा सू की को मिल चुका है। यह पुरस्‍कार शर्मिला के भाई सिंहजीत ने साहसी मायरा पाइबी के कार्यकर्ताओं और मणिपुर की संघर्षरत जनता के नाम शर्मिला की तरफ से प्राप्‍त किया।
यह अच्‍छी पहल है कि श्रीनगर से इंफाल तक शर्मिला के लिएजनकारवां पिछले दिनों निकाला गया। 10 राज्‍यों को पार करता यह 4500 किलोमीटर यात्रा का कारवां था, जो श्रीनगर से चलकर लुधियाना, पानीपत, करनाल, दिल्‍ली, पटना लखन, कानपुर,गौहाटी होते हुए इंफाल पहुंचा। अपने पड़ावों पर रुकते हुए इस कारवां ने स्‍थानीय संगठनों के साथ सेमिनार आयोजित किए और शांति की इस पहल को बढ़ाया।
अदूरदर्शी नीति-निर्धारकों और विध्‍वंसकारी ताकतों को समझ लेना चाहिए कि इरोम शर्मिला अब अकेली नहीं है। इरोम शर्मिला की देह की पृथ्‍वी ने अपने होने की उपस्थिति को व्‍यापक संवेदनशील जनमानस तक विस्‍तारित कर दिया है। केंद्र की राजनीति करने वाले और राज्‍य-विशेष तक सीमित क्षेत्रीय दलगत राजनीति  को इसे गंभीरता से लेना होगा। यह उनके लिए केवल मुद्दा मात्र बनकर नहीं रह जाए। इस पर विशेष सजगता की आवश्‍यकता है। ऐसे में जब मानवाधिकार हनन के खिलाफ मणिपुर में चल रहा यह आंदोलन दुनिया के कई हिस्‍सों में फैल चुका है,हमारे राजनीतिक दलों की चुप्‍पी हमें ही शर्मिन्‍दा कर रही है। लेकिन इरोम शर्मिला को हम सब अपनी गीली आँखों लेकिन प्रतिदिन मणिपुर की पहाड़ियों पर उदय होते सूरज के दृढ़ विश्‍वास के साथ यह यकीन दिलाते हैं कि तुम्‍हें शर्मिन्‍दा नहीं होना पड़ेगा। तुम्‍हारी देह की प्रत्‍येक शिराओं में हम सबकी ही आवाज प्रवाहित हो रही है। तुम्‍हारी देह की मांस-मज्‍जा और उसके रोम-रोम के स्‍पंदन में शांति की देवी शांति को आहुत करने के लिए प्रतिबध्‍द है। हम सब उसी निराकार शांति की देवी की स्‍तुति में अपने अपने तईं प्रयासरत हैं। आखिरकार इस दुनिया को अब उतने विकास और उतने विज्ञान की आवश्‍यकता नहीं है जितनी शांति की।

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

जागो हिन्दू




वैसे तो पिछले डेढ़ वर्ष से केन्द्र में सत्तारूढ़ होने  के बाद से संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन ने एक के बाद एक मुस्लिम तुष्टीकरण के ऐसे कदम उठाये हैं जो पिछले सारे रिकार्ड धवस्त करते हैं. पिछले वर्ष दो निजी टेलीविजन के साथ साक्षात्कार में कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गाँधी ने स्वीकार किया था कि मुसलमान कांग्रेस के स्वाभाविक मित्र हैं और उन्हें अपने पाले में वापस लाने का पूरा प्रयास किया जायेगा. यह इस बात का संकेत था कि मुसलमानों को कुछ और विशेषाधिकार दिये जायेंगे.
                 इसी बीच  केन्द्र सरकार ने सेवा निवृत्त न्यायाधीश राजेन्द्र सच्चर की अध्यक्षता में एक आयोग बनाकर समाज के प्रत्येक क्षेत्र में मुसलमानों की सामाजिक व आर्थिक स्थिति का आकलन करने का निर्णय लिया. सेना में मुसलमानों की गिनती सम्बन्धी आदेश को लेकर उठे विवाद के बाद उस निर्णय को तो टाल दिया गया परन्तु न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका में मुस्लिम भागीदारी का सर्वेक्षण अवश्य किया गया. 
     
       राजेन्द्र सच्चर आयोग ने अब अपनी विस्तृत रिपोर्ट प्रधानमन्त्री को सौंप दी है. इस रिपोर्ट के सार्वजनिक होने से पूर्व ही जिस प्रकार प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह ने मुसलमानों की बराबर हिस्सेदारी की बात कह डाली वह तो स्पष्ट करता है कि सरकार ने मुसलमानों को आरक्षण देने का मन बना लिया है. इसकी झलक पहले भी मिल चुकी है जब आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री ने अपने प्रदेश में मुसलमानों को आरक्षण दिया परन्तु आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने उसे निरस्त कर दिया. फिर भी सरकार का तुष्टीकरण का खेल जारी रहा. संघ लोक सेवा आयोग में मुस्लिम प्रत्याशियों के लिये सरकारी सहायता, रिजर्व बैंक से मुसलमानों को ऋण की विशेष सुविधा, विकास योजनाओं का कुछ प्रतिशत मुसलमानों के लिये आरक्षित करना ऐसे कदम थे जो मुस्लिम आरक्षण की भूमिका तैयार कर रहे थे. अब सच्चर आयोग ने आरक्षण की सिफारिश न करते हुये भी मुस्लिम आरक्षण के लिये मार्ग प्रशस्त कर दिया है.  
    
        मुसलमानों को बराबर की हिस्सेदारी का सवाल उठा ही क्योइसका उत्तर हे कि हमारे सेक्यूलर वामपंथी उदारवादी दलील देते हैं कि इस्लामी आतंकवाद मुसलमानों के पिछड़ेपन का परिणाम है. इसी तर्क के सन्दर्भ में दो महत्वपूर्ण तथ्यों को समझना समीचीन होगा. सच्चर आयोग ने ही अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश की जेलों में बन्द कैदियों की संख्या में मुसलमानों की संख्या उनकी जनसंख्या के अनुपात से काफी अधिक है. भारत की जेलों में कुल 102,652 मुसलमान बन्द हैं और उनमें भी 6 माह से 1 वर्ष की सजा काट रहे मुसलमानों की संख्या का प्रतिशत और भी अधिक है. कुछ लोग इसका कारण भी मुसलमानों के पिछड़ेपन को ठहरा सकते हैं पर ऐसा नहीं है.
     केवल भारत में ही नहीं फ्रांस, इटली, ब्रिटेन, स्काटलैण्ड और अमेरिका में भी जेलों में बन्द मुसलमानों का प्रतिशत उनकी कुल जनसंख्या के अनुपात में अधिक है. इसका कारण मुसलमानों का पिछड़ापन नहीं वरन् जेलों में गैर मुसलमान कैदियों का मुसलमानों द्वारा कराया जाने वाला धर्मान्तरण है. अभी हाल में मुम्बई में आर्थर रोड जेल में डी कम्पनी के गैंगस्टरों द्वारा हिन्दू कैदियों को धर्मान्तरित कर उन्हें मदरसों में जिहाद के प्रशिक्षण का मामला सामने आया था. यह उदाहरण स्पष्ट करता है कि मुसलमान का एकमेव उद्देश्य अपना धर्म मानने वालों की संख्या बढ़ाना है. इस कट्टरपंथी सोच को आरक्षण या विशेषाधिकार देने का अर्थ हुआ उन्हें अपना एजेण्डा पालन करने की छूट देना.
    
        दूसरा उदाहरण 22 जून 2006 को अमेरिका स्थित सेन्ट्रल पिउ रिसर्च सेन्टर द्वारा किया गये सर्वेक्षण की रिपोर्ट है 6 मुस्लिम बहुल और 7 गेर मुस्लिम देशों में किये गये सर्वेक्षण के आधार पर प्रसिद्ध अमेरिकी विद्वान डेनियल पाइप्स ने निष्कर्ष निकाला कि दो श्रेणी के देशों के मुसलमान अलग-थलग और कट्टर हैं एक तो ब्रिटेन जहाँ उन्हें विशेषाधिकार प्राप्त है और दूसरा नाइजीरिया जहाँ शरियत का राज्य चलता है. अर्थात विशेषाधिकार मुसलमानों को और कट्टर बनाता है. ब्रिटेन का उदाहरण भारत के लिये प्रासंगिक है क्योंकि भारत की शासन व्यवस्था और राजनीतिक पद्धति काफी कुछ ब्रिटेन की ही भाँति है. 
    
               इन दृष्टान्तों की पृष्ठभूमि में केन्द्र सरकार के मुस्लिम तुष्टीकरण के पागलपन को समझने की आवश्यकता है विशेषकर तब जब जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी सार्वजनिक रूप से श्रीमती सोनिया गाँधी के साथ इस्लामी संगठनों के सम्पर्क की बात कह चुके हैं. ऐसा लगता है इस्लाम बहुसंख्यक हिन्दू समाज की कनपटी पर बन्दूक रखकर आतंकवादी घटनाओं के सहारे अपने लिये विशेषाधिकार चाहता है.  
   
                 वे जनसंख्या उपायों का पालन नहीं करेंगे और जनसंख्या बढ़ायेंगे , देश के किसी कानून का पालन नहीं करेंगें और ऊपर देश में बम विस्फोट कर आरक्षण तथा विशेषाधिकार भी प्राप्त करेंगे. यह फैसला हिन्दुओं को करना है कि उन्हें धिम्मी बनकर शरियत के अधीन जजिया देकर रहना है या फिर ऋषियों की परम्परा जीवित रखकर इसे देवभूमि बने रहने देना है.

पाकिस्तान में तीन हिन्दुओं की हत्या


दक्षिणी पाकिस्तान के सिंध प्रांत में सोमवार को अज्ञात हमलावरों ने एक गांव पर हमला किया, जिसमें अल्पसंख्यक हिन्दू समुदाय के तीन लोगों की मौत हो गई। अधिकारियों ने बताया कि शिकारपुर जिले के तालुका चक में हुए इस हमले में एक व्यक्ति घायल हो गया।

राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने इस घटना को गंभीरता से लेते हुए अधिकारियों को दोषी लोगों को तुरंत गिरफ्तार करने और उन्हें कानून के हवाले करने का निर्देश दिया है।

राष्ट्रपति के प्रवक्ता फरहतुल्ला बाबर ने कहा कि जरदारी ने घटना पर तत्काल रिपोर्ट मांगी है। जरदारी ने सिंध के एक हिन्दू सांसद रमेश लाल को गांव जाने और शोकसंतप्त परिवारों के प्रति संवेदना प्रकट करने को कहा है।

बाबर ने जरदारी का हवाला देते हुए कहा कि इस मामले में कानून अपना काम करेगा और अपराधियों को नहीं बख्शा जाएगा। (भाषा)

कभी हिन्दू या मुसलमान को आतंकी नहीं कहा: दिग्विजय

दिग्विजय सिंह

कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा कि उन्होंने कभी भी किसी हिन्दू या मुसलमान को आतंकवादी नहीं कहा है. सिंह ने कहा कि उन्होंने हमेशा ही कहा है कि हर हिन्दू या मुसलमान आतंकवादी नहीं होता बल्कि यह कहा है कि इन दोनों धर्मों की कट्टरवादी विचारधारा ही आतंकवाद की जड़ है.
सिंह ने कहा कि उन्होंने हमेशा से दूसरे धर्मों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिये राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की आलोचना की है और कभी भी हिन्दू अथवा मुसलमान को आतंकवादी नहीं कहा. उन्होंने कहा कि सनातन धर्म की विचारधारा कभी नफरत फैलाने की बात नहीं करती है.
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक इन्द्रेश कुमार द्वारा सिंह को आतंकी करार दिये जाने संबंधी बयान के बारे में पूछे जाने पर सिंह ने कहा कि अजमेर बम विस्फोट के एक आरोपी असीमानंद ने ही स्वीकार किया है कि उन्हें आतंकी गतिविधियों में लगाने वाले इन्द्रेश कुमार ही हैं.
देवास में आरएसएस प्रचारक सुनील जोशी हत्याकांड में इन्द्रेश कुमार का हाथ होने का आरोप लगाते हुए सिंह ने कहा कि अब वह बताये कि सुनील जोशी हत्याकांड में किसका हाथ है. उन्होंने कहा कि इस मामले में जिनसे काम कराया गया वह सभी पकड़े जा चुके हैं, लेकिन मास्टरमाइंड का आज तक पता नहीं चला है.
उन्होंने कहा कि सुनील जोशी गरीब था, जबकि उसके आसपास के आरएसएस के लोग अरबों में खेल रहे थे और जोशी ने जब उनका भंडाफोड़ करने की धमकी दी तो उसकी हत्या करा दी गयी.
बाबा रामदेव का जिक्र करते हुए सिंह ने आरोप लगाया कि वह फर्जी संत हैं और भाजपा सनातन परंपरा तोड़कर फर्जी संत बना रही है. सनातन परंपरा में अनेक संत हैं, लेकिन बाबा रामदेव बतायें कि वह कौन सी परंपरा के संत हैं. स्वामी अग्निवेश के बारे में पूछे जाने पर सिंह ने कहा कि वह स्वयं को आर्यसमाजी बताते हैं, लेकिन उनका सनातन धर्म में ही विश्वास नहीं है.


हिन्दू धर्म में विज्ञान (Science in Hindu Religion)


हिन्दू धर्म में विज्ञान (Science in Hindu Religion)

मनुष्य की बुद्धि ही मनुष्य को पशु-पक्षी आदि अन्य प्राणियों से अलग कर देता है। मनुष्य की यह बुद्धि ही ऐसे प्रश्नों को जन्म देती है जिनसे धर्म का जन्म होता है और यह धर्म ही मनुष्य को अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ बना देता हैः
आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु दोनों ही के स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं (अर्थात् यदि केवल इन चारों को ध्यान में रखें तो मनुष्य और पशु समान हैं), केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ बनाता है। अतः धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है।
अपनी इसी श्रेष्ठता के कारण हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने आज से कई हजारों साल पहले अनेक गूढ़ रहस्यों को जान लिया था। उन्होंने समझ लिया था कि मनुष्य मात्र एक देह नहीं होता किन्तु वास्तव में मनुष्य के भीतर एक अति सूक्ष्म रूप में एक शक्ति होती है जिसे कि आत्मा कहा जाता है। उन्होंने इस गूढ़ रहस्य को भी समझ लिया था कि यह आत्मा ब्रह्माण्ड के प्रत्येक वस्तु में व्याप्त रहती है, अर्थात् मनुष्य के भीतर सूक्ष्म रूप में पूर्ण ब्रह्माण्ड होता है। इसीलिए ईशावास्योपनिषद में कहा गया हैः
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥
इस ब्रह्माण्ड मे जो कुछ भी गतिशील अर्थात चर अचर पदार्थ है, उन सब मे ईश्‍वर अपनी गतिशीलता के साथ व्‍याप्‍त है उस ईश्‍वर से सम्‍पन्‍न होते हुये तुम त्‍याग भावना पूर्वक भोग करो। आसक्‍त मत हो कि धन अथवा भोग्‍य पदार्थ किसके है? अर्थात् किसी के भी नही है। अत: किसी अन्‍य के धन का लोभ मत करो क्‍योकि सभी वस्‍तुऐं ईश्‍वर की है।
ऊपर बताया गया है कि धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है। केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से अलग करता है। तो प्रश्न यह उठता है कि आखिर धर्म है क्या? धर्म शब्द की उत्पत्ति “धृ” क्रिया से हुई है जिसका अर्थ है “धारण करना”, अतः जो धारण करे वही धर्म है, इसी को संस्कृत में इस प्रकार कहा गया है – “धरति इति धर्मः”। महाभारत में भी इसी बात को दुहराया गया हैः
धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।
यस्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥
“धर्म” शब्द की उत्पत्ति “धारण” शब्द से हुई है (अर्थात् जिसे धारण किया जा सके वही धर्म है), यह धर्म ही है जिसने समाज को धारण किया हुआ है। अतः यदि किसी वस्तु में धारण करने की क्षमता है तो निस्सन्देह वह धर्म है।
हमारे प्राचीन ऋषियों ने, जो वास्तव में दार्शनिक, चिंतक तथा वैज्ञानिक होते थे, अनेक प्रकार के खोज तथा आविष्कार किए थे। उदाहरण के लिए, उन्होंने खोज लिया था कि मनुष्य का मस्तिष्क सतत् कार्य करते रहता है। यहाँ तक कि मनुष्य के सोते समय भी उसका मस्तिष्क नहीं सोता और कार्य करता ही रहता है जिसके परिणाम स्वप्न होते हैं। हमारे पूर्वजों ने अनेक प्रकार के अन्वेषण करके यह खोज निकाला कि यदि किसी प्रकार से मस्तिष्क को कार्य करने से रोक दिया जाए तो उस अवस्था में एक अद्भुत् शान्ति की प्राप्ति होती है। अपनी इस शुद्धतम अवस्था में मनुष्य परमात्मा के अत्यन्त निकट पहुँच जाता है। इस अवस्था को ही योग की अवस्था कहा जाता है जिसे कि महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र में “योगश्चित्तवृतिनिरोधः” कह कर बताया है, अर्थात मस्तिष्क को विचार तरंगों से हीन कर देना ही योगावस्था है।
यद्यपि हम आज केवल भौतिक सुख-सुविधा के साधन प्रदान करने वाले खोजों तथा आविष्कारों को ही विज्ञान की संज्ञा देते है, किन्तु हमारे ऋषियों की आत्मा-परमात्मा, योग-ध्यान आदि सम्बन्धित खोज और आविष्कार निःसन्देह विज्ञान ही है। ऐसी बात नहीं है कि हमारे पूर्वजों ने केवल अध्यात्मिक विज्ञान में उपलब्धियाँ प्राप्त की थीं बल्कि भौतिक विज्ञान में भी वे आज से भी कहीं बहुत आगे थे। जिन खोजों और आविष्कारों को हम आज पाश्चात्य वैज्ञानिकों की उपलब्धि मानते हैं उनके विषय में हमारे पूर्वज हजारों साल पहले ही जानते थे, जैसे कि आज जिसे पाइथागोरस का साध्य कहा जाता है उसका प्रयोग बोधायन ने पाइथागोरस से हजारों साल पहले अपने शुल्बसूत्र में किया था, पृथ्वी की परिधि की माप, सूर्य से पृथ्वी की दूरी आदि की सही सही गणना हमारे ऋषियों ने हजारों साल पहले ही कर लिया था।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में अनेक गूढ़ रहस्य छुपे हुए हैं! आज आवश्यकता है शोध करके उन रहस्यों को खोज निकालने की

हिन्दू


सनातन धर्म में हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई यही चारों धर्म आते हैं और जब भगवान इन धर्मों में जीव को जन्म देते हैं वह हिन्दू ही जन्मता है ,जन्मके बाद वह अपने अपने धर्म के संस्कारों के अनुसार हिन्दू मुसलमान सिख या इसाई बन जाता है जन्म के समय चारों धर्मों की निशानी (लिंग}एक समान एक रूप ही होता हे जिस के आधार पर यह कहा जासकता है कि जीव हिन्दू ही जन्मता हे और जिस दिन हिन्दू नही जन्मे गा वह समय पृथ्वी का आखरी समय होगा
                                                             जिसकी नीव पड चुकी है इन्ही चारों धर्मों के जीव धर्म परिवर्तन कर सनातन धर्म से बाहर खुद ही हो रहे हैं |जो नातो हिन्दू हैं नाही मुसलमान सिख या इसाई वह लोग फक्र के साथ खुद को निरंकारी -राधास्वामी -आर्य -समाजी और भी बहुत कुछ कहते हैं |

पाकिस्तान में हिन्दू लड़कियों का जबरन धर्म परिवर्तन: आयोग


पाकिस्तान में हिन्दू लड़कियों का जबरन धर्म परिवर्तन: आयोग






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इस्लामाबाद।। पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग ने कहा है कि देश में नाबालिग हिन्दू लड़कियों का जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन करवाया जा रहा है जिससे अल्पसंख्यक समुदाय बहुत चिंतित है।


मानवाधिकार आयोग की वर्ष 2010 की रिपोर्ट में कहा गया है कि बहुत से मामलों में हिन्दू लड़कियों का अपहरण कर उनके साथ रेप किया जाता है और बाद में उन्हें धर्म परिवर्तन पर मजबूर किया जाता है। सिंध प्रान्त विशेष कर देश की व्यापारिक राजधानी कराची में जबर्दस्ती परिवर्तन की घटनाएं हो रही हैं। पाकिस्तान की सीनेट की अल्पसंख्यक मामलों की स्थाई समिति ने अक्टूबर 2010 में ऐसी घटनाएं रोकने के लिए ठोस उपाए करने का आग्रह किया था।


आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन की घटनाएं केवल सिंध तक सीमित नहीं है बल्कि देश के अन्य भागों में भी ऐसा हो रहा है। अल्पसंख्यक समुदाय की लड़कियों का अपहरण होता है, उनके साथ रेप किया जाता है और बाद में यह दलील दी जाती है कि लडकी ने इस्लाम धर्म कबूल कर लिया है। उसकी मुस्लिम व्यक्ति से शादी हो गई है और वह अपने पुराने धर्म में लौटना नहीं चाहती।


आयोग ने कहा कि अदालतें भी अल्पसंख्यक लड़की या उसके परिवार वालों के साथ इंसाफ नहीं करतीं। 12 या 13 साल की लड़की को भी अभिभावकों के संरक्षण में नहीं छोडा जाता। आयोग ने एक घटना का उल्लेख किया जिसमें 12 साल की एक लड़की ने यह बयान दिया कि उसने स्वेच्छा से इस्लाम कबूल कर लिया है। अदालत ने परिवार वालों के वकील की इस दलील की अनसुनी कर दी कि लड़की नाबालिग है। आयोग ने कहा कि ऐसे मामलों पर अदालतें निष्पक्ष रूप से विचार नहीं कर पातीं क्योंकि मजहबी नारेबाजी करने वाले कट्टरपंथी लोगों से भय रहता है।

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

अपनों ने ही हराई थी हिंदी की लड़ाई



इस वाकये को 25 साल से ज्यादा हो चुके हैं। जगह थी इलाहाबाद विश्वविद्यालय का अमरनाथ झा हॉस्टल, जो कभी म्योर हॉस्टल हुआ करता था जिसे अंग्रेज़ीदां लोग अब भी म्योर हॉस्टल ही कहने में गौरवान्वित महसूस करते हैं। मौका था हॉस्टल के सोशल सेक्रेटरी और जनरल सेक्रेटरी का चुनाव। चार-पांच सीनियर्स और बाकी नए बैच के हम जैसे पंद्रह-बीस छात्रों ने ठान लिया कि इस बार हम हिदी के मसले को लेकर अपना प्रत्याशी खड़ा करेंगे।
असल में हम हॉस्टल में रहने लगे तो पता चला कि सभी छात्रों को एसी और डीसी समुदायों में बांटने सिलसिला वहां की परंपरा में है, जिसमें ए से अंग्रेजी और डी से देहाती हुआ करता था। सी का मतलब आप खुद समझ लीजिए, सभ्यता के तकाजे के चलते उसे मैं लिख नहीं सकता। कॉन्वेंट में पढ़े अफसरों या अमीर घरों से आए छात्र एसी कहलाते थे, जबकि हिंदी माध्यम से पढ़कर आए छात्र डीसी कहलाते थे। हमें यह नामकरण बड़ा अपमानजनक लगता था। इसीलिए हमने ठान ली कि इस बार हॉस्टल में सभी डीसी लोगों को एकजुट अपने ही बीच का सोशल सेक्रेटरी बनाएंगे।
सोशल सेक्रेटरी की खास अहमियत थी क्योंकि वही हर साल होनेवाले फेस्टिवल उदीसा में हॉस्टल का प्रतिनिधित्व करता था। हमने हिंदी के मसले पर चुनाव लड़ा और संख्या के बल पर चुनाव जीत भी गए। हालांकि चुनाव के ठीक पहले की रात दोनों ही पक्षों ने छात्रों को तोड़ने के लिए खूब जोड़तोड़ की। भेदिए लगाए गए। मुझ जैसे डीसी को एक सीनियर ने मॉडल्स की तस्वीरें दिखाईं और पूछा कि तुम इनमें से किसको पसंद करते हो। मैंने जब अपनी पसंद बता दी तो सीनियर ने कहा कि पसंद बताती है कि तुम डीसी नहीं हो। हमारी तरफ से मेधावी छात्रों ने बडी-बड़ी बातें करके एसी कैंप में फूट डाली और कामयाब भी रहे।
आखिरकार नतीजा आया तो डीसी प्रत्याशी भारी मतों के अंतर के साथ जीत गया। तय हुआ कि कुछ ही बाद होनेवाले उदीसा फेस्टिवल में वह अपना भाषण हिंदी में देगा। देश को गुलामी से लेकर आज़ादी के बाद तक देश को सबसे ज्यादा आईएएस देनेवाले म्योर हॉस्टल में आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ था। एसी लॉबी में खलबली मच गई। एक्स-म्योरियंस को बुलाया गया। उन्होंने अंग्रेजियत का ऐसा दबाव बनाया कि हिंदी के नाम पर जीते सोशल सेक्रेटरी के लिए जब उदीसा में बोलने की बारी आई तो उसने अंग्रेजी में भाषण दे डाला। हम सभी के लिए यह भारी पराजय थी। हॉस्टल के अधिकांश छात्रों ने उस पूरे समारोह का बहिष्कार कर दिया।
आज हिंदी दिवस के मौके पर उस वाकये की याद इसलिए क्योंकि मुझे लगता है कि तलवारें खींचकर या लामबंदी करके न तो अंग्रेजी को हटाना संभव है और न ही हिंदी को स्थापित करना। भाषा लंबे समय में स्थापित होती है और इसका निर्धारण जीवन स्थितियां ही करती हैं। सत्ता का जिस तरह से हस्तांतरण हमारे यहां हुआ है, उसे देखते हुए अनुवाद या सरकारी कोशिशों से हिंदी को हिंदुस्तान में जन-जन की भाषा नहीं बनाया जा सकता।
हां, हिंदी फिल्मों ने, टीवी सीरियलों ने और अब हिंदी टीवी न्यूज ने पूरे देश में हिंदी को ज्यादा ग्राह्य बना दिया है। हम भले ही बाज़ार को गाली दे लें, लेकिन बाज़ार भी हिंदी के मानकीकरण और विस्तार में मदद कर रहा है। माइक्रोसॉफ्ट से लेकर गूगल के प्लेटफॉर्म पर हिंदी का आना, यूनिकोड फॉन्ट का आना, हिंदी के ब्लॉगों की बढ़ती संख्या, विज्ञापनों में हिंदी और हिंग्लिश का बढ़ता चलन इस बात को स्थापित करने के लिए काफी हैं।
कुछ दिन पहले ही आईबीएम के सीईओ सैमुअल पामिसैनो ने टाइम्स ऑफ इंडिया में एक लेख लिखा था, जिसमें इंडिया ऑनलाइन सर्वे के हवाले से बताया था कि भारत में इंटरनेट इस्तेमाल करनेवालों के बीच अंग्रेजी की धाक बहुत तेज़ी से गिर रही है। साल भर पहले जहां 59 फीसदी लोग अंग्रेजी में ब्राउज करते थे, वहीं अब इनका अनुपात 41 फीसदी रह गया है। शायद भोमियो या अनुवाद का स्कोप तेज़ी से बढ़ रहा है।
हिंदी के साथ एक और समस्या है, जिस पर लोग कम ध्यान देते हैं। हिंदी की बहुत सारी बोलियां हैं – ब्रज से लेकर अवधी और भोजपुरी तक। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सिकुड़ने के साथ बोलियां मिट रही हैं। आज शहर में नौकरी कर रहा कोई परिवार अवधी में बात करना पसंद नहीं करता। ये अलग बात है कि भोजपुर भाषियों के साथ ऐसा नहीं है। मैं भाषाविद नहीं हूं। लेकिन मुझे लगता है कि अपनी बोलियों और उत्तर भारत की भाषाओं के साथ एकीकरण के बिना हिंदी को स्वीकार्य और व्यापक नहीं बनाया जा सकता।
अंत में भाषा के राष्ट्रीय आग्रह के बारे में एक छोटा-सा अनुभव सुनाना चाहता हूं। जर्मनी से लौटने के दौरान सभी मित्र एक-दूसरे से अपने पतों का आदान-प्रदान कर रहे थे। इसी में चीन का भी एक मित्र था। मैंने सभी को अपना भारतीय पता अंग्रेजी में लिखकर दिया था। भारत पहुंचकर मैं एक दिन अपनी डायरी देख रहा था तो मैंने पाया कि चीन के उस मित्र ने तो अपना पता चीनी भाषा में लिखा है, बस फोन नंबर और पिन कोड ही अंग्रेजी में हैं।

ये हिंदी की लड़ाई थी ही नहीं



हिंदी की लड़ाई 

इसे हिंदी की लड़ाई कहा जा रहा था। कुछ तो हिदुस्तान की लड़ाई तक इसे बता रहे थे। देश टूटने का खतरा भी दिख रहा था। लेकिन, क्या सचमुच वो हिंदी की, हिंदुस्तान की लड़ाई थी। दरअसल ये राजनीति की बजबजाती गंदगी को हिंदी की पैकिंग लगाकर उस बजबजाती राजनीति को सहेजने के लिए अपने-अपने पक्ष की सेना तैयार करने की कोशिश थी। 


अब सोचिए भला देश अबू आजमी को लेकर संवेदनशील इसलिए हो गया कि हिंदी के नाम पर आजमी ने चांटा खाया। सोचिए हिंदी की क्या गजब दुर्गति हो गई है कुछ इधर कुआं-उधर खाई वाले अंदाज में। उसको धूल धूसरित करने खड़े हैं राज ठाकरे और उसको बचाने खड़े हैं अबू आजमी। जबकि, सच्चाई यही है कि न तो राज ठाकरे की हिंदी से कोई दुश्मनी है न अबू आजमी को हिंदी से कोई प्रेम।


ये दो गंदे राजनेताओं की अपनी जमीन बचाने के लिए एक बिना कहा समझौता है जो, समझ में खूब ठीक से आ रहा है। समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अबू आजमी के रिश्ते देश के दुश्मन दाऊद इब्राहिम से होने की खबरों के ठंडे हुए अभी बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ और न ही इसे ज्यादा समय बीता होगा जब मराठी संस्कृति के नाम पर भारतीय संस्कृति तक को चुनौती देने वाले राज ठाकरे गर्व से पॉप स्टार माइकल जैकसन की गंधाती देह के दर्शन के लिए आतुर थे।


हिंदी न इनकी बेहूदी हरकतों से मिटेगी न बचेगी। कभी-कभी कुछ सरकारी टाइप के लगने वाले बोर्ड बड़े काम के दिखते हैं। रेलवे स्टेशन पर हिंदी पर कुछ महान लोगों के हिंदी के बारे में विचार दिखे जो, मुझे लगता है कि जितने लोग पढ़ें-सुनें बेहतर। उसमें सबसे जरूरी है भारतीय परंपरा के हिंदी परंपरा के मूर्धन्य मराठी पत्रकार बाबूराव विष्णु पराड़कर जी का हिंदी पर विचार। पराड़कर जी की बात साफ कहती है हिंदी हमारे-आपके जैसे लोगों की वजह से बचेगी या मिटेगी। बेवकूफों के फेर में मत पड़िए
















बतंगड़ BATANGAD