गणि राजेन्द्र विजय
किसी भी भाषा का शब्दकोश धर्म की सर्वमान्य परिभाषानहीं कर सका है। शब्दों में यह सामर्थ्य ही नहीं है कि वहधर्म को व्यक्त कर सके। बुद्धि , ज्ञान , विचार व तर्क भीहमें मत - मतांतरों में भटका सकते हैं , लेकिन धर्म कासही अर्थ नहीं दे सकते। धर्म को जीना होता है , पानाहोता है। मनीषियों ने धर्म को जीया , अपने जीवन मेंउसका अनुभव किया।
धर्म को पुस्तकों से नहीं , व्यवहार और नीति से जाननाचाहिए। जब धर्म पुस्तकों में सीमित रह जाता है तब वहलोक - जीवन से दूर हो जाता है। उसे जीवित रखने केलिए ग्रंथों से बाहर जीवन में ढालना आवश्यक है। धर्म कीविजय में मनुष्य की सद्वृत्तियों की विजय है और धर्म कीपराजय से मानवता का नैतिक स्तर गिर जाता है। धर्मऊँचा उठेगा तो मनुष्य भी ऊँचा होगा।
आश्चर्य की बात है कि इस वक्त दुनिया में सैकड़ों धर्म हैं फिर भी मनुष्य दुखी है ? क्यों ? संभवत : इसलिएक्योंकि कई धर्म हमें परस्पर लड़ाते हैं। धर्मों के परस्पर कलह , संघर्ष और युद्ध का इतिहास इतना वीभत्स ,भयावह और घृणा से भरा है कि उसे पढ़ - सुनकर मनुष्य के मन में उस धर्म के प्रति कोई आस्था नहीं रहती।
सचाई यह है कि धर्म को जब तक रूढि़यों और कर्मकांड से अलग नहीं किया जाएगा , तब तक उसका असलीस्वरूप हमारे सामने नहीं आ सकता। धर्म के नाम पर किए जाने वाले कर्मकांड तो मनुष्य के लिए भार स्वरूपहोते हैं। इन कर्मकांडों का आयोजन महंगा और परेशानियों से भरा हुआ है। इस कारण लोगों के घरों में अनेकझंझट पैदा हो जाते हैं। इसका थोड़ा बहुत अनुभव सभी को है। वास्तव मंे कर्मकांडों के कारण ही लोगों में ऐसाअहम पैदा हो गया है जिससे जाति एवं कुल - मद जैसी बुराइयों का जन्म हुआ है। जाति - मद और कुल - मदएक प्रकार के उन्माद हैं जो मानवता की भावना को दबा देते हैं और इससे हमारे मन में दूसरों के प्रति पैदा होनेवाली सहानुभूति भी नष्ट हो जाती है। अगर मनुष्य में दया , सहानुभूति और परोपकार आदि की सद्वृत्तियां न होंतो उसका जीवन ही व्यर्थ है।
ऊपरी तौर पर कोई कितना भी धार्मिक आचरण करने का ढोंग क्यों न करे , जब तक कषायों की ज्वाला उसकीआत्मा में जलती रहती है , तब तक उसका सारा कर्मकांड व्यर्थ है। ' कषाय ' शब्द का अर्थ हिंसा करना है। क्रोध ,मान , माया , लोभ ये मुख्य कषाय हैं। ये आत्मा की हिंसा करते हैं। इनसे चित्त अस्थिर हो जाता है और आत्मा मेंशांति नहीं रहती। मन में इनका उत्पन्न होना या सुप्त अवस्था में बने रहना ही घातक है। इस बात को इससेसमझा जा सकता है कि हम क्रोध आने पर किसी को गाली दें या न दें अथवा किसी को हानि पहुंचाएं या नपहुंचाएं , अपनी आध्यात्मिक या शारीरिक हानि हुए बिना नहीं रहती। क्रोध जैसे विकार हमारी आत्मा केस्वाभाविक स्वभाव नहीं हैं , बल्कि ये तो विकृतियां हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि क्रोध से हम बहुतजल्दी ऊब जाते हैं जबकि शांति से कभी नहीं ऊबते।
पापों को रोकने के लिए मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह कभी किसी के अनिष्ट के बारे में सोच - विचार नहीं करे। ऐसेसदाचार और धर्म में कोई भेद नहीं है। सदाचार से जीवन भौतिकता से हटकर आध्यात्मिकता की ओर अग्रसरहोता है। तब हमें समझ में आता है कि धर्म जीवन का गुण है। यह एक स्वभाव है जो हमारे भीतर सदा मौजूदरहता है। असल में तो धर्म नित्य नवीन होने की प्रेरणा है। हम कुछ नया तभी पा सकते हैं जब पुरानी रूढि़यों कोतोड़ें और अपने सद्गुणों को जाग्रत करते हुए किसी श्रेष्ठ कार्य का पवित्र संकल्प लें। विगत और वर्तमान में समस्तबंधनों या बाधाओं को छोड़कर ही नव्य यानी नए दौर में प्रवेश संभव है। प्रकृति की सीख भी यही है। प्रत्येक जीव, वस्तु और पदार्थ हर क्षण बीत रहा है और नया आ रहा है। इस आने - जाने और रहने के स्वभाव के साथ तन्मयहोकर जीना ही धर्म को जीना है।
किसी भी भाषा का शब्दकोश धर्म की सर्वमान्य परिभाषानहीं कर सका है। शब्दों में यह सामर्थ्य ही नहीं है कि वहधर्म को व्यक्त कर सके। बुद्धि , ज्ञान , विचार व तर्क भीहमें मत - मतांतरों में भटका सकते हैं , लेकिन धर्म कासही अर्थ नहीं दे सकते। धर्म को जीना होता है , पानाहोता है। मनीषियों ने धर्म को जीया , अपने जीवन मेंउसका अनुभव किया।
धर्म को पुस्तकों से नहीं , व्यवहार और नीति से जाननाचाहिए। जब धर्म पुस्तकों में सीमित रह जाता है तब वहलोक - जीवन से दूर हो जाता है। उसे जीवित रखने केलिए ग्रंथों से बाहर जीवन में ढालना आवश्यक है। धर्म कीविजय में मनुष्य की सद्वृत्तियों की विजय है और धर्म कीपराजय से मानवता का नैतिक स्तर गिर जाता है। धर्मऊँचा उठेगा तो मनुष्य भी ऊँचा होगा।
आश्चर्य की बात है कि इस वक्त दुनिया में सैकड़ों धर्म हैं फिर भी मनुष्य दुखी है ? क्यों ? संभवत : इसलिएक्योंकि कई धर्म हमें परस्पर लड़ाते हैं। धर्मों के परस्पर कलह , संघर्ष और युद्ध का इतिहास इतना वीभत्स ,भयावह और घृणा से भरा है कि उसे पढ़ - सुनकर मनुष्य के मन में उस धर्म के प्रति कोई आस्था नहीं रहती।
सचाई यह है कि धर्म को जब तक रूढि़यों और कर्मकांड से अलग नहीं किया जाएगा , तब तक उसका असलीस्वरूप हमारे सामने नहीं आ सकता। धर्म के नाम पर किए जाने वाले कर्मकांड तो मनुष्य के लिए भार स्वरूपहोते हैं। इन कर्मकांडों का आयोजन महंगा और परेशानियों से भरा हुआ है। इस कारण लोगों के घरों में अनेकझंझट पैदा हो जाते हैं। इसका थोड़ा बहुत अनुभव सभी को है। वास्तव मंे कर्मकांडों के कारण ही लोगों में ऐसाअहम पैदा हो गया है जिससे जाति एवं कुल - मद जैसी बुराइयों का जन्म हुआ है। जाति - मद और कुल - मदएक प्रकार के उन्माद हैं जो मानवता की भावना को दबा देते हैं और इससे हमारे मन में दूसरों के प्रति पैदा होनेवाली सहानुभूति भी नष्ट हो जाती है। अगर मनुष्य में दया , सहानुभूति और परोपकार आदि की सद्वृत्तियां न होंतो उसका जीवन ही व्यर्थ है।
ऊपरी तौर पर कोई कितना भी धार्मिक आचरण करने का ढोंग क्यों न करे , जब तक कषायों की ज्वाला उसकीआत्मा में जलती रहती है , तब तक उसका सारा कर्मकांड व्यर्थ है। ' कषाय ' शब्द का अर्थ हिंसा करना है। क्रोध ,मान , माया , लोभ ये मुख्य कषाय हैं। ये आत्मा की हिंसा करते हैं। इनसे चित्त अस्थिर हो जाता है और आत्मा मेंशांति नहीं रहती। मन में इनका उत्पन्न होना या सुप्त अवस्था में बने रहना ही घातक है। इस बात को इससेसमझा जा सकता है कि हम क्रोध आने पर किसी को गाली दें या न दें अथवा किसी को हानि पहुंचाएं या नपहुंचाएं , अपनी आध्यात्मिक या शारीरिक हानि हुए बिना नहीं रहती। क्रोध जैसे विकार हमारी आत्मा केस्वाभाविक स्वभाव नहीं हैं , बल्कि ये तो विकृतियां हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि क्रोध से हम बहुतजल्दी ऊब जाते हैं जबकि शांति से कभी नहीं ऊबते।
पापों को रोकने के लिए मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह कभी किसी के अनिष्ट के बारे में सोच - विचार नहीं करे। ऐसेसदाचार और धर्म में कोई भेद नहीं है। सदाचार से जीवन भौतिकता से हटकर आध्यात्मिकता की ओर अग्रसरहोता है। तब हमें समझ में आता है कि धर्म जीवन का गुण है। यह एक स्वभाव है जो हमारे भीतर सदा मौजूदरहता है। असल में तो धर्म नित्य नवीन होने की प्रेरणा है। हम कुछ नया तभी पा सकते हैं जब पुरानी रूढि़यों कोतोड़ें और अपने सद्गुणों को जाग्रत करते हुए किसी श्रेष्ठ कार्य का पवित्र संकल्प लें। विगत और वर्तमान में समस्तबंधनों या बाधाओं को छोड़कर ही नव्य यानी नए दौर में प्रवेश संभव है। प्रकृति की सीख भी यही है। प्रत्येक जीव, वस्तु और पदार्थ हर क्षण बीत रहा है और नया आ रहा है। इस आने - जाने और रहने के स्वभाव के साथ तन्मयहोकर जीना ही धर्म को जीना है।
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