शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

विशद वर्णन


विशद वर्णन

श्राद्ध सम्बन्धि साहित्य विशाल है। वैदिक संहिताओं से लेकर आधुनिक टीकाओं एवं निबन्धों तक में श्राद्ध के विषय में विशद वर्णन प्राप्त होता है। पुराणों में श्राद्ध के विषय में सहस्रों श्लोक हैं। वैदिक संहिताओं एवं ब्राह्मण ग्रन्थों, गृह्यसूत्रों एवं धर्मसूत्रों से लेकर आरम्भिक स्मृतिग्रन्थों यथा मनु एवं याज्ञवल्क्य की स्मृतियों तक, तदनन्तर प्रतिनिधि पुराण एवं मेधातिथि, विज्ञानेश्वर तथा अपरार्क की टीकाओं द्वारा उपस्थित विवेचनों से लेकर मध्यकालिक निबन्धों तक का वर्णन है। पौराणिक काल में कतिपय शाखाओं की ओर संकेत मिलते हैं।[199] स्मृतियों एवं महाभारत[200] के वचनों तथा सूत्रों, मनु, याज्ञवल्क्य एवं अन्य स्मृतियों की टीकाओं के अतिरिक्त श्राद्ध सम्बन्धी निबन्धों की संख्या अपार है। इस विषय में केवल निम्नलिखित निबन्धों की (काल के अनुसार व्यवस्थित) चर्चा होगी–श्राद्धकल्पतरु, अनिरुद्ध की हारलता एवं पितृदयिता, स्मृत्यर्थसार, स्मृतिचन्द्रिका, चतुर्वर्गचिन्तामणि (श्राद्ध प्रकरण), हेमाद्रि[201], रुद्रधर का श्राद्धविवेक, मदनपारिजात, श्राद्धसार (नृसिंहप्रसाद का एक भाग), गोविन्दानन्द की श्राद्धक्रियाकौमुदी, रघुनन्दन का श्राद्धतत्व, श्राद्धसौख्य[202], विनायक उर्फ नन्द पण्डित की श्राद्धकल्पलता, निर्णयसिन्धु, नीलकण्ठ का श्राद्धमयूख, श्राद्धप्रकाश (वीरमित्रोदय का एक भाग), दिवाकर भट्ट की श्राद्धचन्द्रिका, स्मृतिमुक्ताफल (श्राद्ध पर), धर्मसिन्धु एवं मिताक्षरा की टीका–बालभट्टी। श्राद्धसम्बन्धी विशद वर्णन उपस्थित करते समय, कहीं-कहीं आवश्यकतानुसार सामान्य विचार भी उपस्थित किये जायेंगे।

श्राद्ध करने की योग्यता

उपनयन
Upanayana
यह ज्ञातव्य है कि कुछ धर्मशास्त्र ग्रन्थों (यथा–विष्णुधर्मोत्तर) ने व्यवस्था दी है कि जो कोई मृतक की सम्पत्ति ले लेता है, उसे उसके लिए श्राद्ध करना चाहिए, और कुछ ने ऐसा कहा है कि जो भी कोई श्राद्ध करने की योग्यता रखता है अथवा श्राद्ध का अधिकारी है, वह मृतक की सम्पत्ति ग्रहण कर सकता है। शान्तिपर्व[203] में वर्णन आया है कि इन्द्र ने सम्राट मान्धाता से कहा कि किस प्रकार यवन, किरात आदि आनार्यों (जिन्हें महाभारत में दस्यु कहा गया है) को आचरण करना चाहिए और यह भी कहा गया है कि सभी दस्यु पितृयज्ञ (जिससे उन्हें अपनी जाति वालों को धन देना चाहिए) कर सकते हैं और ब्राह्मणों को धन भी दे सकते हैं।[204] वायु पुराण[205] ने भी म्लेच्छों को पितरों के लिए श्राद्ध करते हुए वर्णित किया है। गोभिलस्मृति[206] ने एक सामान्य नियम दिया है कि पुत्रहीन पत्नी को (मरने पर) पति द्वारा पिण्ड नहीं दिया जाना चाहिए, पिता द्वारा पुत्र को तथा बड़े भाई के द्वारा छोटे भाई को भी पिण्ड नहीं दिया जाना चाहिएं निमि ने अपने मृत पुत्र का श्राद्ध किया था, किन्तु उन्होंने आगे चलकर पश्चाताप किया, क्योंकि वह कार्य धर्मसंकट था। यह बात भी गोभिलस्मृति के समान ही है।[207] अपरार्क[208] ने षटत्रिशन्मत का एक श्लोक उद्धृत कर कहा है कि पिता को पुत्र का एवं बड़े भाई को छोटे भाई का श्राद्ध नहीं करना चाहिए। किन्तु बृहत्पराशर[209] ने कहा है कि कभी-कभी यह सामान्य नियम भी नहीं माना जा सकता। बौधायन एवं वृद्धशातातप[210] ने किसी को स्नेहवश किसी के लिए भी श्राद्ध करने की, विशेषत: गया, में अनुमति दी है। ऐसा कहा गया है कि केवल वही पुत्र कहलाने योग्य है, जो पिता की जीवितावस्था में उसके वचनों का पालन करता है, प्रति वर्ष (पिता की मृत्यु के उपरान्त) पर्याप्त भोजन, (ब्राह्मणों) को देता है और जो गया में (पूर्वजों) को पिण्ड देता है।[211] एक सामान्य नियम यह था कि उपनयनविहीन बच्चा शूद्र के समान है और वह वैदिक मंत्रों का उच्चारण नहीं कर सकता।[212] किन्तु इसका एक अपवाद स्वीकृत था, उपनयनविहीन पुत्र अन्त्येष्टि कर्म से सम्बन्धित वैदिक मंत्रों का उच्चारण कर सकता है। मेधातिथि[213] ने व्याख्या की है कि अल्पवयस्क पुत्र भी, यद्यपि अभी वह उपनयनविहीन होने के कारण वेदाध्ययनरहित है, अपने पिता को जल तर्पण कर सकता है, नवश्राद्ध कर सकता है और 'शुन्धन्तां पितर:' जैसे मंत्रों का उच्चारण कर सकता है, किन्तु श्रौताग्नियों या गृह्यग्नियों के अभाव में वह पार्वण जैसे श्राद्ध नहीं कर सकता। स्मृत्यर्थसार[214] ने लिखा है कि अनुपनीत (जिनका अभी उपनयन संस्कार नहीं हुआ है) बच्चों, स्त्रियों तथा शूद्रों को पुरोहित द्वारा श्राद्धकर्म कराना चाहिए या वे स्वयं भी बिना मंत्रों के श्राद्ध कर सकते हैं किन्तु वे केवल मृत के नाम एवं गोत्र या दो मंत्रों, यथा–'देवेभ्यो नम:' एवं 'पितृभ्य: स्वधा नम:' का उच्चारण कर सकते हैं। उपर्युक्त विवेचन स्पष्ट करता है कि पुरुषों, स्त्रियों एवं उपनीत तथा अनुपनीत बच्चों को श्राद्ध करना पड़ता है।

प्रपौत्र को श्राद्ध करने का अधिकार

तैत्तिरीय संहिता[215] एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण[216] से प्रकट होता है कि पिता, पितामह एवं प्रपितामह तीन स्व-सम्बन्धी पूर्वपुरुषों का श्राद्ध किया जाता है। बौधायन धर्मसूत्र[217] का कथन है कि सात प्रकार के व्यक्ति एक-दूसरे से अति सम्बन्धित हैं, और वे अविभक्तदाय सपिण्ड कहे जाते हैं–प्रपितामह, पिता, स्वयं व्यक्ति (जो अपने से पूर्व से तीन को पिण्ड देता है), उसके सहोदर भाई, उसका पुत्र (उसी की जाति वाली पत्नी से उत्पन्न) पौत्र एवं प्रपौत्र। सकुल्य वे हैं जो विभक्तदायाद हैं, मृत की सम्पत्ति उसे मिलती है जो मृत के शरीर से उत्पन्न हुआ है।[218] मनु[219] ने लिखा है–पुत्र के जन्म से व्यक्ति लोकों (स्वर्ग) आदि की प्राप्ति करता है, पौत्र से अमरता प्राप्त करता है और प्रपौत्र से वह सूर्यलोक पहुँच जाता है। इससे प्रकट होता है कि व्यक्ति के तीन वंशज समान रूप से व्यक्ति को आध्यात्मिक लाभ पहुँचाते हैं।

आह्विक यज्ञ

शतपथ ब्राह्मण एवं तैत्तिरीय आरण्यक[220] ने आगे कहा है कि वह आह्विक यज्ञ जिसमें पितरों को स्वधा (भोजन) एवं जल दिया जाता है, पितृयज्ञ कहलाता है। मनु[221] ने पितृयज्ञ को तर्पण (जल से पूर्वजों की संतुष्टि) करना कहा है। मनु[222] ने व्यवस्था दी है कि प्रत्येक गृहस्थ को प्रतिदिन भोजन या जल या दूध, मूल एवं फल के साथ श्राद्ध करना चाहिए और पितरों को संतोष देना चाहिए। प्रारम्भिक रूप में श्राद्ध पितरों के लिए अमावस्या के दिन किया जाता था।[223] अमावस्या दो प्रकार की होती है; विनोवाली एवं कुहू। आहिताग्नि (अग्निहोत्री) सिनीवाली में श्राद्ध करते हैं, तथा इनसे भिन्न एवं शूद्र लोग कुहू अमावस्या में श्राद्ध करते हैं।

तीन कोटियाँ

श्राद्ध (या सभी कृत्य) तीन कोटियों में विभाजित किये गये हैं; नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य।
  • वह श्राद्ध नित्य कहलाता है, जिसके लिए ऐसी व्यवस्था दी हुई हो कि वह किसी निश्चित अवसर पर किया जाए (यथा–आह्विक, अमावास्या के दिन वाला या अष्टका के दिन वाला)।
  • जो ऐसे अवसर पर किया जाए जो कि अनिश्चित सा हो, यथा–पुत्रोत्पत्ति आदि पर, उसे नैमित्तिक कहा जाता है।
  • जो किसी विशिष्ट फल के लिए किया जाए उसे काम्य कहते हैं; यथा–स्वर्ग, संतति आदि की प्राप्ति के लिए। कृत्तिका या रोहिणी पर किया गया श्राद्ध।
पंचमहायज्ञ कृत्य, जिनमें पितृयज्ञ भी सम्मिलित है, नित्य कहे जाते हैं, अर्थात् उन्हें बिना किसी फल की आशा के करना चाहिए, उनके न करने से पाप लगता है। नित्य कर्मों को करने से प्राप्त फल की जो चर्चा धर्मशास्त्रों में मिलती है, वह केवल प्रशंसा मात्र ही है। उससे केवल यही व्यक्त होता है कि कर्मों के सम्पादन से व्यक्ति पवित्र हो जाता है। किन्तु ऐसा नहीं है कि वे अपरिहार्य नहीं है और उनका सम्पादन तभी होता है, जब व्यक्ति किसी विशिष्ट फल की आशा रखता है (अर्थात् इन कर्मों का सम्पादन काम्य अथवा इच्छाजनित नहीं है)। आपस्तम्ब धर्मसूत्र[224] ने श्राद्ध के लिए निश्चित कालों की व्यवस्था दी है, यथा–इसका सम्पादन प्रत्येक मास के अन्तिम पक्ष में होना चाहिए, दोपहर को श्रेष्ठता मिलनी चाहिए और पक्ष के आरम्भिक दिनों की अपेक्षा अन्तिम दिनों को अधिक महत्त्व देना चाहिए। गौतम[225]एवं वसिष्ठ[226] का कथन है कि श्राद्ध प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष में चतुर्थी को छोड़कर किसी भी दिन किया जा सकता है और गौतम[227] ने पुन: कहा है कि यदि विशिष्ट रूप में उचित सामग्रियों या पवित्र ब्राह्मण उपलब्ध हो या कर्ता किसी पवित्र स्थान (यथा–गया) में हो तो श्राद्ध किसी भी दिन किया जा सकता है। यही बात कूर्म पुराण[228] ने भी कही है। अग्नि पुराण[229] का कथन है कि गया में किसी भी दिन श्राद्ध किया जा सकता है। [230]

श्राद्धों की फलसूचियाँ

संक्रान्ति पर किया गया श्राद्ध अनन्त काल तक के लिए स्थायी होता है, इसी प्रकार जन्म के दिन एवं कतिपय नक्षत्रों में श्राद्ध करना चाहिए। आपस्तम्ब धर्मसूत्र[231]अनुशासन पर्व[232]वायु पुराण[233], याज्ञवल्क्य[234]ब्रह्म पुराण[235], विष्णु धर्मसूत्र[236]कूर्म पुराण[237]ब्रह्माण्ड पुराण[238] ने कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से अमावस्या तक किये गये श्राद्धों के फलों का उल्लेख किया है।

वर्णित दिनों में होने वाले श्राद्ध

विष्णु धर्मसूत्र[239] द्वारा वर्णित दिनों में किये जाने वाले श्राद्ध नैमित्तिक हैं और जो विशिष्ट तिथियों एवं सप्ताह के दिनों में कुछ निश्चित इच्छाओं की पूर्ति के लिए किये जाते हैं, वे काम्य श्राद्ध कहे जाते हैं। परा. मा.[240] के मत से नित्य कर्मों का सम्पादन संस्कारक (जो कि मन को पवित्र बना दे और उसे शुभ कर्मों की ओर प्रेरित करे) कहा जाता है, किन्तु कुछ परिस्थितियों में यह अप्रत्यक्ष अन्तर्हित रहस्य (परम तत्त्व) की जानकारी की अभिकांक्षा भी उत्पन्न करता है।[241] जैमिनिय[242] ने सिद्ध किया है कि नित्य कर्म (यथा, अग्निहोत्र, दर्श पूर्णमास याग) अवश्य करने चाहिए, भले ही कर्ता उनके कुछ उपकृत्यों को करने में असमर्थ हो; उन्होंने[243] पुन: व्यवस्था दी है कि काम्य कृत्यों के सभी भाग सम्पादित होने चाहिए और यदि कर्ता सोचता है कि वह सबका सम्पादन करने में असमर्थ है तो उसे काम्य कृत्य करने ही नहीं चाहिए।

सप्ताह का श्राद्ध

विष्णु धर्मसूत्र[244] का कथन है कि रविवार को श्राद्ध करने वाला रोगों से सदा के लिए छुटकारा पा जाता है और वे जो सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र एवं शनि को श्राद्ध करते हैं, क्रम से सौख्य (या प्रशंसा), युद्ध में विजय, सभी इच्छाओं की पूर्ति, अभीष्ट ज्ञान, धन एवं लम्बी आयु प्राप्त करते हैं। कूर्म पुराण[245] ने भी सप्ताह के कतिपय दिनों में सम्पादित श्रोद्धों से उत्पन्न फलों का उल्लेख किया है। विष्णुधर्मसूत्र[246] ने कृत्तिका से भरणी (अभिजित को भी सम्मिलित करते हुए) तक के 28 नक्षत्रों में सम्पादित श्राद्धों से उत्पन्न फलों का उल्लेख किया है।[247]\

युगादि एवं मन्वादि

अग्नि पुराण[248] में आया है कि वे श्राद्ध जो किसी तीर्थ या युगादि एवं मन्वादि दिनों में किये जाते हैं (पितरों को) अक्षय संतुष्टि देते हैं। विष्णु पुराण[249]मत्स्य पुराण[250]पद्म पुराण[251]वराह पुराण[252], प्रजापतिस्मृति[253] एवं स्कन्द पुराण[254] का कथन है कि वैशाख शुक्ल तृतीया, कार्तिक शुक्ल नवमी, भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी एवं माघ की अमावास्या युगादि तिथियाँ (अर्थात् चारों युगों के प्रथम दिन) कही जाती है। मत्स्य पुराण[255], अग्नि पुराण[256], सौरपुराण[257], पद्म पुराण[258] ने 14 मनुओं (या मन्वन्तरों) की प्रथम तिथियाँ इस प्रकार दी हैं–आश्विन शुक्ल नवमी, कार्तिक शुक्ल द्वादशी, चैत्र एवं भाद्रपद शुक्ल तृतीया, फाल्गुन की अमावास्या, पौष शुक्ल एकादशी, आषाढ़ शुक्ल दशमी एवं माघ शुक्ल सप्तमी, श्रावण कृष्ण अष्टमी, आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन, चैत्र एवं ज्येष्ठ की पूर्णिमा। मत्स्यपुराण की सूची स्मृतिच.[259], कृत्यरत्नाकर[260], परा. मा.[261] एवं मदनपारिजात[262] में उद्धृत हैं। स्कन्द पुराण[263] एवं स्मृत्यर्थसार[264] में क्रम कुछ भिन्न है। स्कन्दपुराण (नागर खण्ड) में श्वेत से लेकर तीन कल्पों की प्रथम तिथियाँ श्राद्ध के लिए उपयुक्त ठहरायी गयी हैं।

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