सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

सनातन धर्म का बौद्ध कलेवर


सनातन धर्म का बौद्ध कलेवर


एक बड़े चिंतक हुए हैं-पूसिन. उन्होंने बौद्ध धर्म पर लिखते हुए एक बड़ी गज़ब बात कही है. वह मानते हैं कि बौद्ध धर्म कोई नया धर्म नहीं, बल्कि वह तो सनातन धर्म का बौद्धीकरण करने की ही कोशिश थी. इसे क्या काफी हद तक ठीक न मान लिया जाए? आख़िर, बौद्ध धर्म में भी तो जो भावनाएं, विचार और संस्थाएं देखने को मिलती हैं, क्या उन्हें देखकर नहीं लगता कि वे सभी सनातन धर्म का बौद्धीकृत स्वरूप ही थे? सनातन धर्म के मूल तत्व क्या हैं? पुनर्जन्म का सिद्धांत, आवागमन की बातें, अवतारवाद और कर्मफल के अनुसार दंड या पुरस्कार मिलने की बात. यही बात अपने तेवर और अंदाज़ बदल कर बौद्ध धर्म में भी देखने को मिलती है. ये सारे सिद्धांत तो बीज रूप में सनातन धर्म में ही मौजूद थे, बस बौद्ध धर्म ने उसको नई शब्दावली दे दी. यहां तक कि सनातन धर्म में जो भगवान या त्राता का विचार था, वह भी नए स्वरूप में बौद्ध धर्म में आ गया. यह भले ही बौद्ध धर्म की महायान शाखा में ही क्यों न हुआ हो. भगवान या ईश्वर के जो विविध अवतारों और रूपों की अवधारणा सनातन धर्म में थी, वही चोर दरवाज़े से बौद्ध धर्म में बोधिसत्वों का रूप धर कर दाख़िल हो गई.
अगर सच पूछा जाए तो सनातन धर्म का विकास जिन-जिन दिशाओं में हो रहा था, उन्हीं दिशाओं में बौद्ध धर्म भी विकसित हो रहा था. महायान शाखा में भक्ति का पुट भी निश्चित तौर पर सनातन धर्म की ही देन थी. बौद्ध मत मुख्य तौर पर बुद्धिवाद की बात करता था. इसमें कर्मकांड, यज्ञ-हवन और अंधविश्वास का विरोध शामिल है. हालांकि यह भी बौद्ध धर्म का मौलिक आविष्कार तो नहीं ही कहा जा सकता. सनातन धर्म की अन्य शाखाओं, जैसे औपनिषदिक काल, वेदांत और नास्तिक दर्शन के व़क्त भी सनातन धर्म की इन बेहूदगियों के ख़िला़फ आवाज़ उठाई जाती रही थी. यहां तक कि बौद्ध मत का निराशावाद, ऊंची नैतिकता, कृच्छाचार (तपस्या से शरीर को दंडित करना) और मानवीयता-इन सब में से ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे बौद्ध धर्म का मूल कहा जा सके. ये सारे तत्व समय-समय पर सनातन धर्म में प्रकट होते रहे थे. बौद्ध धर्म ने बस उसे अपने तरीके और नए जोश से पेश कर दिया. महात्मा बुद्ध ने बस इन गुणों पर अधिक ज़ोर दिया और इसे ही धर्म का मूल आयाम बना दिया. इस हिसाब से देखें तो बुद्ध तो सनातन धर्म के शोधक थे, संहारक नहीं. इसका एक प्रमाण यह भी है कि पहले तो गृहस्थ बौद्ध बने ही नहीं, क्योंकि मान्यता थी कि संसार से विरक्त और त्यागी व संन्यासी लोग ही बौद्ध हो सकते हैं. दूसरी बात यह है कि जब गृहस्थों ने बौद्ध बनने की शुरुआत की, तो भी वे अधिकतर मामलों में सनातनी ही बने रह गए, क्योंकि उपनयन, विवाह और श्राद्ध वगैरह संस्कारों के लिए तो बौद्ध धर्म में कोई व्यवस्था ही नहीं थी.
यहां सवाल यह उठ सकता है कि आख़िर बौद्धों और ब्राह्मणों के बीच इतने तीव्र संघर्ष का कारण क्या था? इसका कारण कहीं से भी वैचारिक नहीं था. असल में बौद्धों ने यज्ञों और कर्मकांडों का पुरज़ोर विरोध किया, जिस पर बेचारे ब्राह्मणों की रोजी चलती थी. यही कारण था कि बौद्ध हमेशा ब्राह्मणों की आंखों की किरकिरी बने रहे और मौक़ा मिलते ही उन पर चढ़ाई कर दी गई. दूसरी वजह यह थी कि राज्याश्रय पाकर बौद्ध मठों में ख़ासी संपत्ति एकत्र हो गई थी. ब्राह्मण मठों पर हमला इसलिए करते थे या राजाओं के माध्यम से कराते थे, ताकि वहां मौजूद अकूत संपत्ति पर अपनी दावेदारी भी पेश कर सकें. ऐसे क्रूर हमलावरों में राजा शशांक और पांड्य वंश के राजा शामिल थे.
अंत में, बात बस इतनी ही कि बौद्ध धर्म का ब्राह्मणों द्वारा विरोध विशुद्ध स्वार्थ औऱ राजनीतिक कारणों पर आधारित था या है, क्योंकि उनकी दुकान बंद होने वाली थी. दूसरे बौद्ध धर्म कुछ अलग नहीं बल्कि सनातन धर्म की ही एक और व्याख्या है.

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