शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

हिन्दू धर्म की सामाजिक शक्ति



वेदों को ज्ञान और धर्म का उत्पत्तिकर्ता माना जाता है (ऋग्वेद विश्व की पहली पुस्तक है)। परन्तु अन्य धर्मों की तरह किसी एक व्यक्ति ने इसे नहीं लिखा है और यह कहा जाता है कि वे ‘मानवीय क्षमताओं से परे’ है या ईश्वरीय है। लेकिन चूंकि इन्हें लम्बी अवधि में और अनेक संतों द्वारा किए गए रहस्योद्धाटनों के आधार पर लिखा गया है अत: अलग-अलग अर्थ और उपदेशों को ब्रह्मसूत्र में एकत्रित किया गया है। इसके अलावा श्रीमद्भगवद्गीता इन सभी उपदेशों की कुंजी है।
धर्म एक सामाजिक शक्ति है जिसे यदि उपयुक्त दिशा में निर्देशित किया जा सके तो यह इस संसार में जीवन को काफी ऊंचाइयों तक ले जा सकती है। लेकिन यह केवल तभी संभव है जबकि मानव मस्तिष्क स्वतंत्र हो और किसी भी अन्य वैज्ञानिक सिध्दांत की तर्ज पर विभिन्न क्रियाओं पर प्रश्न उठाने की हिम्मत रखता हो।
वैदिक धर्म के विकास में जो अनोखापन रहा है वह है ‘शास्त्रार्थ’ की चुनौती। किसी धार्मिक व्यक्ति द्वारा प्रतिपादित सिध्दान्तों को चुनौती का सामना करना पड़ता था, जहां सभी व्यक्तियों को यह अनुमति होती थी कि वे उसे चुनौती दे सकें और यदि वह प्रवर्तक संतोषजनक तरीकों से सिध्दांतों की व्याख्या कर देता था और सभी आपत्तियों को दर किनार कर देता था तो उसके सिध्दांत मान लिये जाते थे। इस प्रकार जो पहली चीज विकसित हुई वह दर्शन थी। तत्पश्चात् इन सिध्दांतों को व्यवहार्य रूप देने के लिए इसमें कर्मकाण्ड जोड़े गए। पश्चिम में यह ठीक विपरीत तरीके से हुआ। एक अकेले व्यक्ति ने धर्म और कर्मकाण्डों का प्रतिपादन किया जिस पर कोई प्रश्न नहीं उठाये जा सकते थे। इस प्रकार वहां का दर्शन कुछ अधिक ज्ञानवान लोगों की बौध्दिक चेष्टा भर है जिसका धार्मिक मान्यताओं से कोई सम्बन्ध नहीं है।
हिन्दू धर्म में दो ऐसी मान्यताएं हैं जो अद्वितीय हैं। ये हैं (1) मूर्ति पूजा और (2) पुनर्जन्म में विश्वास। हिन्दू परम्परा मूर्ति पूजा (साकार) और बिना मूर्ति के (निराकार) पूजन दोनों को समान महत्व देती है। फिर भी जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है कि एक आदमी के लिए मूर्ति पूजा कहीं बेहतर है जिसके कारण वह बाह्य रूप से और ध्यान द्वारा भी एक प्रतिमा (दृश्य प्रतिरूप) के साथ स्वयं को बहुत सहजता के साथ संबध्द कर सकता है। मूर्ति पूजा के पीछे मुख्य तर्क यह है कि यह इस अद्वितीय विचारधारा के साथ जुड़ी है कि इस जगत की समस्त रचनाएं (जीवित और निर्जीव दोनों) चेतना (ईश्वर) और भौतिक प्रकृति दोनों का सम्मिश्रण हैं। कोई भी वस्तु दोनों के बिना नहीं रह सकती। अत: इस बात में कोई बुराई नहीं है कि एक व्यक्ति अपनी प्रवृत्ति और झुकाव के आधार पर किसी भी ऐसी वस्तु या आकार का चयन कर ले जो उसकी नजर में ईश्वर का प्रतिनिधित्व करती है और उसकी पूजा करनी आरंभ कर दे। यही चीज पश्चिम के संरक्षणवादी धर्मों- जैसे यहूदी, ईसाई और इस्लाम से हिन्दू धर्म को अलग करती है। इन सभी धर्मों के तहत यह विश्वास किया जाता है कि ईश्वर स्वर्ग में बैठा है और सृष्टि उससे सर्वथा अलग है।
पुनर्जन्म की अवधारणा
दूसरी अवधारणा पुनर्जन्म की है। संरक्षणवादी धर्मों के यहां ऐसे कोई भी तरीके नहीं हैं जिसके जरिये वे लोगों के बीच विद्यमान भारी असमानताओं की व्याख्या कर सकें।
कुछ बच्चे जन्म से ही हट्टे-कट्टे होते हैं जबकि अन्य जन्म से ही कमजोर और मरियल जैसे होते हैं तो कुछ सुस्त और अकर्मण्य। इस तरह यह विविधता हमेशा विद्यमान रहती है। यह सृजन सिर्फ एक जीवन काल के लिए है तो क्या ईश्वर इतना निष्ठुर है कि वह कुछ लोगों के लिए पक्षपात करे और बाकियों की जिन्दगी सड़ी-गली अवस्था में छोड़ दे। क्या वह वरदान और अभिशाप का खेल खेल रहा है? इसके अलावा कोई ऐसा मार्ग उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यह व्याख्या की जा सके कि इस जन्म में भी नैतिकता और धार्मिकता का सख्ती से अनुपालन करने वाले लोगों को भी अक्सर जीवनकाल में कई दु:खद घटनाओं का सामना क्यों करना पड़ता है? इसकी व्याख्या केवल तब की जा सकती है जब हम न्याय का दिन प्रत्येक व्यक्ति की मृत्यु के दिवस को माने और जिस दिन उसे उसके कर्मों का हिसाब दिया जायेगा। यदि उसने अच्छे कर्म किए हों तो स्वर्ग में स्थान पायेगा अन्यथा नर्क में सड़ेगा।
हिन्दू धर्म की अवधारणा है कि स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे की सम्पूर्णता के पूरक हैं। इसे सांकेतिक रूप से ईश्वर के ‘अर्ध्दनारी-नटेश्वर’ स्वरूप के रूप में दर्शाया गया है जहां लंबवत् रूप से शरीर का आधा हिस्सा नारी का है और आधा पुरुष का है। इसके उलट पश्चिम की अवधारणा उन्हें एक-दूसरे का प्रतिस्पर्धी और विरोधी बना देती है।
मुसलमान भारतीय संस्कृति या धर्म का विरोध इसलिये करते हैं क्योंकि वे अपनी सर्वोच्चता प्रदर्शित करना चाहते हैं। राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम्’ पर यह कहकर आपत्ति व्यक्त की जाती है कि यह मूर्ति पूजा से सम्बध्द है। लेकिन एक माता अपने शिशु को केवल 6 माह तक दुग्ध पान कराती है फिर भी मुसलमान उसका आदर और अभिनन्दन करते हैं। दूसरी ओर गऊ (गाय) है जो माता के बाद जीवन पर्यन्त दुग्ध पान कराकर जीवन बनाए रखती है और धरती अपने अनाजों, फल, सब्जियों एवं अन्य उत्पादों के सहारे जीवन बनाए रखती है। अत: इसी वजह से भारतीय परम्परा में गऊ और धरती दोनों को माता माना गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि गाय और धरती की मूर्ति बनाकर पूजा की जाती है। भारत में बच्चे (मुसलमानों के बच्चे भी) अजनबी तक को चाचा, चाची कहकर पुकारते हैं और बड़े-बूढ़ों का आदर करते हैं।

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