सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

हिंदू होने का धर्म : जाति की संकीर्णता वर्ण की वजह से नहीं


हिंदू होने का धर्म : जाति की संकीर्णता वर्ण की वजह से नहीं


सनातन धर्म का सबसे बड़ा अभिशाप जाति की दीवारों को माना जाता है, इसकी संकीर्णता को माना जाता है और जातिगत बंधनों को ही सनातन धर्म का सबसे बड़ा दोष और धब्बा भी माना जाता है. यह सत्य भी है. इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि वर्तमान जाति-व्यवस्था की बंदिशों और मानव-मानव के बीच भेदभाव ने सनातन धर्म के मूल तत्व पर ही प्रहार किया है और इसकी उदात्तता और उदारता पर ही प्रश्नचिह्न लगाया है. सवाल यह जायज भी है कि आखिर वसुधैव कुटुंबकम की बात करनेवाला धर्म अपने ही कुछ अनुयायियों को अस्पृश्य और त्याज्य क्यों मानता है.
धारणा यह है कि जाति व्यवस्था का यह वर्तमान स्वरूप वर्णाश्रम व्यवस्था की ही देन है. यह निहायत ही ग़लत अवधारणा है. इस पर चर्चा विस्तार से आगे. पहले तो यह जानें कि वर्ण क्या है. सनातन धर्म में कर्म के आधार पर मानव समुदाय को चार वर्णों में बांटने की व्यवस्था की गई-चातुर्वर्ण्यं मया स्रष्टं गुण-कर्म विभागशः (गीता)- जो कालांतर में जाति-प्रथा के ज़हर में बदल गई. वैसे कर्म के आधार पर केवल सनातन धर्म में ही मनुष्यों का विभाजन किया गया है, ऐसा नहीं है. यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने भी मनुष्यों की चार जातियों का उल्लेख किया है. इसी तरह पारसियों के सर्वोच्च धर्म ग्रंथ जेंद अवेस्ता में भी मनुष्यों की चार जातियों या वर्णों का उल्लेख है. अवेस्ता में इनके नाम आथ्रवन (ब्राह्मण), रथैस्तार (क्षत्रिय), वारस्त्रयोष (वैश्य) और हुतोक्ष (शूद्र) हैं. सनातन धर्म में जिस तरह द्विजों का उपनयन संस्कार होता था, उसी तरह पारसियों में भी नवजोत (नवजात) संस्कार किया जाता है. इसमें उऩको मेखला, पवित्र कुरता और टोपी पहनाई जाती है. कहने का मतलब यह कि समाज की व्यवस्था को सुचारू रूप से बनाए और चलाए रखने के लिए सनातन धर्म के अलावा भी कई समाजों में वर्ण के आधार पर मनुष्य को विभाजित करने का रिवाज था.
ठीक इसी तरह, वर्ण व्यवस्था को जाति का पूरक मान लेना भी ग़लत होगा. ऋग्वेद या कहें वैदिक काल तक तो सनातन धर्म त्रिवर्णी ही था. ऋग्वेद में शूद्र शब्द का इस्तेमाल केवल एक बार हुआ है, वह भी पुरुष सूक्त में. वेदों और उपनिषदों का रहस्य उद्घाटित करनेवाले जर्मन विद्वान मैक्समूलर और कोलब्रुक दोनों ही पुरुष सूक्त को क्षेपक (बाद में जोड़ा गया) मानते हैं. इन दोनों ही मनीषियों के अनुसार पुरुष सूक्त की भाषा और शैली इसे ऋग्वेद से अलग खड़ा करती है. इसी तरह राजन्य शब्द का भी प्रयोग ऋग्वेद में एक ही बार हुआ है. ठीक इसी तरह रंग के आधार पर मनुष्यों के वर्ण का निर्धारण महाभारत काल में ही किया गया है. इसी में बताया गया है कि क्षत्रिय लाल रंग के, ब्राह्मण गौर वर्ण के और शूद्र काले रंग के होते हैं. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ऋग्वेद काल तक सनातन धर्म में त्रिवर्णों का ही उल्लेख था. साथ ही, वर्ण व्यवस्था में शूद्रों को सबसे नीचे का और अधिकाधिक बंधनों का पायदान भी मनुस्मृति के बाद ही दिया गया. मनुस्मृति में ही यह तय कर दिया गया कि शूद्रों का काम केवल द्विजों की सेवा करना है, ब्राह्मण अपनी मर्जी से जब और जहां चाहें, शूद्रों को भेज सकते हैं और जितनी चाहें उतनी ताड़ना कर सकता है. आज के दौर तक आते-आते निश्चय ही जाति-व्यवस्था अपने सबसे गर्हित और पतनशील रूप में दिखाई पड़ती है. कैसी अचरज की बात है कि जो सनातन धर्म अपने अनुयायियों को चिंतन और वाणी की पूरी स्वतंत्रता देता है, वही सनातन धर्म व्यवहार के स्तर पर बिल्कुल कठोर है. कोई भी सनातनी व्यवहार और कर्म के स्तर पर जाति-प्रथा की अवहेलना नहीं कर सकता. सबसे निंदा की बात यह है कि शुरुआती चार वर्णों से आज शताधिक जातियां बन गई हैं, और उनमें अंत्यज औऱ अस्पृश्य भी शामिल हैं.
एक बात औऱ गौर करनेवाली यह है कि वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था अपने शुरुआती रूप में काफी लचीली थी. तभी तो ऋग्वेद के दशम मंडल के 102वें सूक्त का ऋषि कहता है-मैं कवि हूं, मेरा पिता वैद्य है और मेरी मां पिसान करती है. इसी तरह एक ही क्षत्रिय गाधि(पुरुरवा के वंशज) के पुत्र विश्वामित्र तो क्षत्रिय ही रहे, लेकिन उनके जामाता ऋचीक ब्राह्मण थे. इसी तरह गाड़ीवान रैक्व को भी उपनिषदों का ऋषि माना गया है. यहां तक कि जाबाला पुत्र सत्यकाम को भी ब्रह्मविद्या के रहस्य का उद्घाटन करने लायक माना गया है, जबकि उनकी माता जाबाला को ही यह नहीं पता था कि वह किस पुरुष के औरस से पैदा हुए हैं. वेदकालीन राजा सुदास शूद्र थे और वह राजर्षि विश्वामित्र के संरक्षक थे. सुदास ने अश्वमेध भी किया था, इसका भी उल्लेख आया है. ऐसे कई उदाहरण उपनिषदों, वेदों और पुराणों में मिल जाते हैं. कहने का मतलब यह कि प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था का यह घटिया स्वरूप देखने को नहीं मिलता था, जो आज चारों ओर से सनातन धर्म को अपनी जकड़ में लिए हुए है. कोई भी व्यक्ति किसी भी जाति से दूसरी जाति में संक्रमण कर सकता था और उसकी जाति का निर्धारण मुख्यतः उसके कर्म से ही होता था.
गंगा भी इलाहाबाद औऱ पटना आकर काफी दूषित हो जाती है, किंतु उसमें गंगा के उद्गम का तो कोई दोष नहीं. यही बात सनातन धर्म के साथ भी है. जाति प्रथा पर विस्तार से चर्चा अगले अंकों में.

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