शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

श्राद्ध


श्राद्ध

श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। पितरों के निमित्त विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है उसी को श्राद्ध कहते हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार, प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता, पूर्वजों को नमस्कार या प्रणाम करना हमारा कर्तव्य है, हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही हम आज यह जीवन देख रहे हैं, इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं। इस धर्म में, ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध, तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्घ्य समर्पित करते हैं। यदि किसी कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते है जिसे 'श्राद्ध' कहते हैं।

श्राद्ध एक परिचय

ब्रह्म पुराण ने श्राद्ध की परिभाषा यों दी है, 'जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है।[1]
मिताक्षरा[2] ने श्राद्ध को यों परिभाषित किया है, 'पितरों का उद्देश्य करके (उनके कल्याण के लिए) श्रद्धापूर्वक किसी वस्तु का या उससे सम्बन्धित किसी द्रव्य का त्याग श्राद्ध है।'
कल्पतरु की परिभाषा यों है, 'पितरों का उद्देश्य करके (उनके लाभ के लिए) यज्ञिय वस्तु का त्याग एवं ब्राह्मणों के द्वारा उसका ग्रहण प्रधान श्राद्धस्वरूप है।'
रुद्रधर के श्राद्धविवेक एवं श्राद्धप्रकाश ने मिताक्षरा के समान ही कहा है, किन्तु इनमें परिभाषा कुछ उलझ सी गयी है।
याज्ञवल्क्यस्मृति[3] का कथन है कि पितर लोग, यथा–वसु, रुद्र एवं आदित्य, जो कि श्राद्ध के देवता हैं, श्राद्ध से संतुष्ट होकर मानवों के पूर्वपुरुषों को संतुष्टि देते हैं।
यह वचन एवं मनु[4] की उक्ति यह स्पष्ट करती है कि मनुष्य के तीन पूर्वज, यथा–पिता, पितामह एवं प्रपितामह क्रम से पितृ-देवों, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्य के समान हैं और श्राद्ध करते समय उनकों पूर्वजों का प्रतिनिधि मानना चाहिए। कुछ लोगों के मत से श्राद्ध से इन बातों का निर्देश होता है; होम, पिण्डदान एवं ब्राह्मण तर्पण (ब्राह्मण संतुष्टि भोजन आदि से); किन्तु श्राद्ध शब्द का प्रयोग इन तीनों के साथ गोण अर्थ में उपयुक्त समझा जा सकता है।

श्राद्ध और पितर
श्राद्धों का पितरों के साथ अटूट संबंध है। पितरों के बिना श्राद्ध की कल्पना नहीं की जा सकती। श्राद्ध पितरों को आहार पहुँचाने का माध्यम मात्र है। मृत व्यक्ति के लिए जो श्रद्धायुक्त होकर तर्पण, पिण्ड, दानादि किया जाता है, उसे श्राद्ध कहा जाता है और जिस 'मृत व्यक्ति' के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया कर्म संपन्न हो जायें, उसी की 'पितर' संज्ञा हो जाती है।

'मेरे वे पितर जो प्रेतरूप हैं, तिलयुक्त जौं के पिण्डों से तृप्त हों।
साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्मा से लेकर तिनके तक,
चर हो या अचर, मेरे द्वारा दिये जल से तृप्त हों।' - वायु पुराण

श्राद्ध क्या है?
श्राद्ध प्रथा वैदिक काल के बाद शुरू हुई और इसके मूल में इसी श्लोक की भावना है। उचित समय पर शास्त्रसम्मत विधि द्वारा पितरों के लिए श्रद्धा भाव से मन्त्रों के साथ जो दान-दक्षिणा आदि, दिया जाय, वही श्राद्ध कहलाता है। 20 अंश रेतस (सोम) को 'पितृॠण' कहते हैं। 28 अंश रेतस के रूप में 'श्रद्धा' नामक मार्ग से भेजे जाने वाले 'पिण्ड' तथा 'जल' आदि के दान को श्राद्ध कहते हैं। इस श्रद्धावान मार्ग का संबंध मध्याह्न काल में श्राद्ध करने का विधान है।

श्राद्ध के देवता
वसु, रुद्र और आदित्य श्राद्ध के देवता माने जाते हैं।

श्राद्ध क्यों?
हर व्यक्ति के तीन पूर्वज पिता, दादा और परदादा क्रम से वसु, रुद्र और आदित्य के समान माने जाते हैं। श्राद्ध के वक़्त वे ही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि वे श्राद्ध कराने वालों के शरीर में प्रवेश करके और ठीक ढ़ग से रीति-रिवाजों के अनुसार कराये गये श्राद्ध-कर्म से तृप्त होकर वे अपने वंशधर को सपरिवार सुख- समृद्धि और स्वास्थ्य का आर्शीवाद देते हैं। श्राद्ध-कर्म में उच्चारित मन्त्रों और आहुतियों को वे अन्य सभी पितरों तक ले जाते हैं।

श्राद्ध के प्रकार
श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं-

नित्य- यह श्राद्ध के दिनों में मृतक के निधन की तिथि पर किया जाता है।
नैमित्तिक- किसी विशेष पारिवारिक उत्सव, जैसे - पुत्र जन्म पर मृतक को याद कर किया जाता है।
काम्य- यह श्राद्ध किसी विशेष मनौती के लिए कृतिका या रोहिणी नक्षत्र में किया जाता है।

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