‘शांति की देवी’ शर्मिला
तुम्हें शर्मिन्दा नहीं होना है
‘शांति की देवी’ शर्मिला
-राकेश श्रीमाल
देह को मैंने अपने इस जीवन में कई दृष्टिकोणों से देखा-समझा है। खुद की देह से अनुभूत होकर और दूसरे की देह के माध्यम से। मुझे अक्सर अपनी देह से कम,दूसरों की देह से अधिक बहुआयामी अनुभव-अर्थ मिले हैं। मुझे इसीलिए रूपंकर कला की अपेक्षा प्रदर्शनकारी कलाओं में गहरी रुचि रही है। कथक मेरा सबसे प्रिय नृत्य है। लखनऊ घराने के लच्छू महाराज(बिरजू महाराज के चाचा) के साथ तबला संगत करने वाले उस्ताद आफाक हुसैन की महफिलों में लखनऊ कथक घराने पर कई सारी शामें कथक की इसी दुनिया के वैचारिक भ्रमण पर गुजारी हैं। मेरी कविताओं में अगर कहीं सौन्दर्य होता है तो वह बेशक कथक के ही समय-असमय अनुभूत हुए प्रभाव-प्रवाह ही हैं। कथक की अपनी अमूर्तता की तरह कविता का अमूर्त भाव मुझे सबसे अधिक खींचता है। दमयंती जोशी और सितारा देवी मेरी अपनी मनपसंद देह-उपस्थिति रही हैं। इन दोनों वरिष्ठ नृत्यांगनाओं के साथ कई बैठकों में हुई लंबी-लंबी औपचारिक-अनौपचारिक बातचीत मेरे अनुभव संसार का दुर्लभ खजाना है।
देह को लेकर गरिमामय सम्मान सहित धैर्य हमेशा मेरा संगी रहा है। अस्ताद देबू की अमूर्त नृत्य-संरचनाओं से लेकर कोलकाता के पेन्टोमाइम आर्टिस्ट निरंजन गोस्वामी और चंद्रलेखा की देह-शोध पर आधारित नृत्य प्रस्तुतियों को देखना-समझना मेरे अपने जीवन का वैभव रहा है। सौभाग्य से इस मामले में मैंने अपने आप को कभी निर्धन नहीं समझा। ब.व.कारंत,फ्रिट्ज बेनेविट्स और अलखनंदन के रंग-निर्देशन में मुझे आंगिक पक्ष सबसे प्रिय रहा है। इस दुनिया का सारा वजूद, उसका इतिहास और उसकी समकालीन उपस्थिति मुझे इसी देह में बंधी दिखती है। विचारधाराओं, क्रांतियों और दौर-बदलाव को मैं इसी देह की उपज समझता हूँ। अपने इसी यथार्थवादी भ्रम से मुझे सुख भी मिलता है।
मेरे लिए देह अपने आकार से अधिक निराकार में बसती है। यही देह मेरे लिए कभी शब्दों में ठिठकी खड़ी रहती है, कभी अपने आंगिक-वाचिक अभिनय में, तो कभी बेहद उल्लसित हो नृत्य-मुद्राओं में। तितली की देह तो मुझे जादू की तरह ही लगती रही है। किसी एक्वेरियम में मछलियों को देखते हुए मुझे देह की शास्त्रीय लयकारी से हर बार नया मृदुल परिचय मिलता रहा है। पूर्णिमा के बाद अपने ही आकार में मंथर गति से सकुचाती चंद्रमा की देह आज भी मेरे नितांत निजी अकेलेपन को अपने साथ बाँटने में ना-नुकुर नहीं करती।
गांधी ने अपनी देह पर जितना प्रयोग किया है, क्या आज वैसा कोई करने का सोच सकता है.....मेरे अपने ही पास इसका उत्तर ‘हाँ’ में है। इस 5 नवंबर 2011 को इस आत्म प्रयोग के लंबे 11 बरस पूरे हो रहे हैं। इरोम शर्मिला नामक वह अकेली देह अपने साथ जो प्रयोग कर रही है, वह अचम्भित कर देने वाला है। इरोम शर्मिला ने यह साबित कर दिया है कि एक अकेली देह किस तरह व्यापक जनसमाज की, उसकी संस्कृति की और उसकी अस्मिता की मूक अभिव्यक्ति बन सकती है। 21वीं सदी का यह समूचा शैशव अपने दिक्-काल की उस अविस्मरित कर देने वाली नृत्य-शिराओं को इरोम की देह में स्पंदित कर रहा है। इरोम की देह नैसर्गिक संपदा से भरी मणिपुर की जमीन बन गई है। उसी जमीन पर मणिपुर अपनी भोली-भाली और मातृभूमि से प्रेम करती जीवन की गति को बचाने में लगा हुआ है।
इतिहास बताता है कि लाइमा लाइस्ना ने अपने पूर्ववर्ती राजा-रानियों की तरह मणिपुर में अपना राज्य स्थापित किया था। लाइमा और उनके भाई चिंगखुंग पौइरेथौन अपने स्वजातीय समुदाय के साथ पूरब के एक भूमिगत इलाके से आए थे। यह पौइरेथौन मणिपुर में अपने साथ पहली बार ‘अग्नि’लाए थे। वह अग्नि विषम परिस्थितियों में आज भी इंफाल घाटी के गाँव आंद्रो में प्रज्वलित है।
अग्नि के अपने चारित्रिक गुणों को चकमा देती इसी अग्नि की एक नन्हीं लौ इरोम शर्मिला की समूची देह में अपनी नीरवता के साथ उपस्थित है। अपने होने की तरफ ध्यान देने का विनम्र आग्रह करती हुई। अपनी बित्ते भर की रोशनी के चलते दुनिया-जहान को यह संदेश फैलाती हुई कि भरी-पूरी शांत जीवन शैली के साथ अमानवीयता हो रही है। भूमंडलीकरण में सिमट चुके ओर नित-नई तकनीकी से अपने आपको गर्वित करते समय में एक अकेली देह एक बडी लड़ाई लड़ रही है। उसकी देह में बसी जीभ की स्वाद ग्रंथि भी अपने कर्तव्य से निष्क्रिय होकर इस लड़ाई का दिशा-निर्देश कर रही है। उसकी देह की देखने की शक्ति ने तितलियों, हरी-भरी जलवायु और अपनी मातृभूमि के विशाल प्राकृतिक वैभव को देखे जाने की सहज इच्छा को फिलहाल बेरहमी से ठुकरा दिया है। ग्यारह वर्ष पहले का देखा हुआ संचित दृश्य-अनुभव ही उस देह की स्मृति में किसी बावली उपस्थिति बनकर वास करता है। स्त्री देह की प्रकृति का अपना मौसम,अपनी इच्छाएं और अपना ही नियंत्रण होता है। लेकिन उस अकेली देह में जिद से भरा एक तपस्या जैसा पवित्र नियंत्रण ही शेष बचा है। अपने जन-समाज की समवेत सहज जायज इच्छाओं को अपने में समेटे। इसे अन्ना हजारे के संक्षिप्त अनशन से तुलना करना नाइंसाफी होगा। अपने गहरे और गहन अर्थों में यह अन्न-जल त्याग का अनशन मात्र नहीं है। यह एक देह का आत्मीय उत्सर्ग है, अपनी इसी क्षणभंगुर देह के अध्यात्म के सहारे किया जा रहा पवित्र संघर्ष है। यह मणिपुर का समकालीन स्त्री युध्द है। स्त्री युध्द को मणिपुर में‘नूपीलोन’ कहा जाता है। वहाँ दो नूपीलोन बहुत प्रसिध्द हुए हैं। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि मणिपुर के दूसरे नूपीलोन को वर्ष 1939में शर्मिला की दादी ने देखा भी था। मणिपुरी महिलाओं के जुझारूपन पर मणिपुरी संस्कृति को भी गर्व है।
शर्मिला को ‘सगेम पोम्बा’ बहुत पसंद रही है। यह एक खास किस्म का व्यंजन होता है जो पानी में पैदा होने वाले पौधों, उनकी जड़ों, सोयाबीन, फलियों ओर खमीर से बनाया जाता है। लेकिन जैसा कि शर्मिला ने अपनी एक कविता की पंक्ति में लिखा है- मेरा मन मेरे शरीर के प्रति लापरवाह है। समझा जा सकता है कि उस शरीर ने ही उस मन को लापरवाह बनाया है।
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‘‘मैं केवल आत्मा नहीं हूँ। मेरा भी अपना शरीर है और उसकी अपनी हलचल है।’’ – इरोम
निश्चित तौर पर इरोम शर्मिला की देह उसकी आत्मा का सुरक्षा कवच नहीं है। अगर आत्मा कहीं होती है तो इरोम शर्मिला की आत्मा मणिपुर के समस्त फूलों, धान और शब्जियों के खेतों और दुब के हर एक तिनके में समाकर सहज-सरल जीवन जीते हुए सुरक्षित जीवन जीने की आकांक्षी है। कभी ‘सना लाइबेक’(स्वर्ण देश) कहा जाने वाला मणिपुर आज अपनी ही नाभि (यानी लांबा किला) से अपना ही गणतांत्रिक पुर्नजन्म लेने को अधीर है। मणिपुर की अधिकांश पहाड़ी जमीन पर ढलानों पर उतरती चढती हवाएं भी गोया अपना चैन सुकून पाने के लिए करबध्द प्रार्थना कर रही हैं।
अतीत की सिहरती हवाओं से पता चलता है कि 17 वीं शताब्दी तक मणिपुर आत्मनिर्भर और सुदृढ राष्ट्र था। इतिहास की अनिवार्यता समझे जाने वाले युध्द तत्व का दंश भी इस देश ने सहा है। बर्मा के साथ इसके कई बार युध्द हुए। अठाहरवीं सदी के पूर्वाध्द में इसके काफी बड़े हिस्से पर बर्मा ने कब्जा कर लिया था। तब ईस्ट इंडिया कंपनी की मदद से महाराजा गंभीर सिंह ने घमासान लड़ाई लड़ते हुए अपने देश के हिस्से को बर्मा से छुडाया था। यहीं से ईस्ट इंडिया कंपनी की बुरी नजर इस पर लग गई। अंतत: 18 वीं शताब्दी के अंतिम दशक मेंएंग्लो-मणिपुर संग्राम में अंग्रेजों ने जीत हासिल कर ली। संक्षिप्त में यह जान लेना जरूरी है कि 19अगस्त 1947को गवर्नर-जनरल माउंटबेटन और तात्कालिक महाराज बोधचंद् के दरमियांन स्टैंड-स्टिल एंग्रीमेंट हुआ जिसमें मणिपुर को डोमेनियन दर्जा दिया गया। भारत और पाकिस्तान के बटंवारे के साथ 15अगस्त 1947 को मणिपुर एक स्वतंत्र देश घोषित कर दिया गया। तब बडे उत्साह के साथ कांग्ला फोर्ट मेंयूनियन जैक को हटाकर पाखांग्बा के चित्रवाला मणिपुरी ध्वज फहरा दिया गया।
आज जिन दुरूह आंतरिक परिस्थतियों से मणिपुर जूझ रहा है दरअसल इसकी शुरूआत 21 सितम्बर 1949 को मणिपुर महाराज और भारत सरकार के साथ मणिपुर विलय समझोते पर हुए परस्पर हस्ताक्षरों के पीछे अदृश्य पार्श्व भूमिकाओं के साथ शुरू हो गई थी। इसमें भारत में सम्मिलित होने के प्रस्ताव की मंजूरी थी। 15 अक्तूबर 1949से यह समझौता लागू होना था। मणिपुर के जनमानस को इसमें षडयंत्र की बू नजर आई और यह विलय अपने होने के पहले से ही विवादस्पद हो गया। अपनी जमीन को अपना देश मानने वाली भावनाओं के साथ यह किसी खिलवाड से कम नहीं था। एक व्यापक जन भावना की लगभग अनदेखी करते हुए 26 जनवरी 1950 को मणिपुर भारत का प्रदेश घोषित कर दिया गया।
अपनी ही जमीन, अपना ही पर्यावरण और अपनी ही संस्कृति के साथ रहते हुए वहाँ के जन-मानस के लिए यह किसी निर्वासन से कम हादसा नहीं था। भारत राष्ट्र और मणिपुर प्रदेश को एक दूसरे को समझने में लंबा समय लगना ही था। जाहिर है एक बडा जन आक्रोश इन सबके साथ पनप रहा था, जो अपनी पूर्ण स्वतंत्रता चाहता था। दो विश्वयुध्द देख चुका विश्व को नक्शा अपने इस छोटे भौगोलिक अंश को यह समझाने में नाकाम था कि उसे भारत जैसे राष्ट्र की सुरक्षा मे अपना अस्तित्व बचाए रखना है। जन-मानस का अपनी ही जमीन के प्रति प्रेम एक अरसे बाद कितना विषाक्त हो सकता है यह मणिपुर के प्रदेश बनने के बाद के दशकों में खोजा जा सकता है।
यह एक निर्विवाद कटु सत्य है कि मणिपुर से आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट को हटा लेना मात्र ही मणिपुर में शांति बहाल करने के लिए पर्याप्त नहीं है। तेजी से बदलते स्थानीय आंतरिक परिदृश्य ने प्रदेश बनने के चार दशकों में ही भूमिगत विद्रोहों की अच्छी-खासी संस्थागत श्रृंखलाओं की शुरूआत कर दी थी जो आज भी बदस्तूर जारी है। हालात इतने बदतर हैं कि सुरक्षाकर्मियों और विद्रोही भूमिगत संगठनों के आपसी घमासान में आम जन-मानस ही निशाने पर है। यह सुरक्षा प्रदान करने और स्वतंत्र होने की दबी इच्छा की इकलौती पतली झुलती रस्सी पर खेला जा रहा युध्द है जिसमें रक्त केवल और केवल मानवीयता का ही बह रहा है। शांति पाने की यह अदम्य इच्छा उस कस्तूरी मृग की तरह ही है जो कस्तूरी की चाह में इधर उधर कुलांचे मार रहा है, शायद यह जानते या नहीं जानते हुए कि वह तो उसकी नाभि में ही है।
बात केवल राज्य वर्सेस विद्रोही संगठन की ही नहीं, इसमें कई और मुश्किल गांठे लग चुकी हैं। मसलन जल और उर्जा संसाधनों का गलत बटवांरा,सरकार द्वारा सार्वजनिक हित में आम लोगों की जमीन हड़पना और सबसे बढ़कर स्थानीय समुदायों के बीच का व्यापक एतिहासि तनाव। इन सब ऊबड-खाबड विषम परिस्थतियों में इरोम शर्मिला की देह उस शांति की माँग कर रही है जो एक विस्तृत समाज विज्ञान की दूरबीन से देखने पर ही शायद दिखाई पड़ सकती है। पिछले तीन दशकों से दो दर्जन से अधिक विद्रोही भूमिगत संगठन इस जमीन पर अपना मोर्चा खोले हुए हैं। इनमें यू एन एल एफ सबसे बड़ा है। अन्य संगठनों मेंजौनी रिवल्यूशनरी आर्मी, कुकी लिबरेशन आर्मी, नेशलन सोशलिस्ट कांउसिल आफ नागालैंड (आई.एम.), नेशनल सोशलिस्ट कांउसिल आफ नागालैंड (के.), खांग्लाइपाक कम्युनिस्ट पार्टी, रिवल्यूशनरी पीपुल्स फ्रंट, पी एल ए, प्रीपाक, कुकी नेशनल आर्मी और कुकी लिबरेशन आर्गेनाइजेशन मौजूद हैं। एक बडी माँग स्वतंत्र नागालिमयानी ग्रेटर नागालैंड की भी है जिसके खिलाफ यूएनएलएफ सक्रिय है। उसका मानना है कि इस माँग से मणिपुर का लगभग आधा हिस्सा नागालैंड में चला जाएगा। पिछली शताब्दी के अंतिम दशक से ही मणिपुर स्थानीय दंगों और त्रासद हिंसक वारदातों के बीच सांस ले रहा है। वहाँ अक्सर ही नागा-कुकी, कुकी-आओगी,कुकी-पाइले,मेइतेइ-पागांल और प्रोइतेइ-नागा संप्रदायों में आपसी मतभेद वहाँ की स्थानीय शांति को विध्वंस करते हुए रक्तरंजित साबित हुए हैं।
निश्चित ही यह भयावह परिदृश्य है। सरकार सुरक्षा प्रदान करने की अपनी सरकारी पेशकश के साथ प्रस्तुत है जो यदा-कदा अमानवीय हो जाती है। एक तरह से सुरक्षा के नाम पर एक माफिया का जन्म विकराल रूप धारण कर चुका है। विद्रोही संगठन उस व्यवस्था से आर-पार की असफल लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे में इरोम शर्मिला की अकेली देह चुपचाप पवित्र यज्ञ की आहुति की तरह इसी काल चक्र में विनम्रता के साथ उपस्थित है। क्या इक्कीसवीं सदी में इरोम शर्मिला की शांति पाने की शौरहीन आर्तनाद किसी को सुनाई दे रही है...या वह शांति पाने की इच्छा मणिपुर के अपने विशिष्ट फूलों,धान और शब्जियों के रूप-गंध मे समाहित होकर अपने तई इसे बचाए रखने का प्रयत्न कर रही है।
एक मणिपुरी लोककथा के मुताबिक डजीलो मोसीरो नाम की एक खूबसूरत स्त्री पर ईश्वर बादल की तरह मंडराया और अपनी बदलियों से भरी छाया उसके साथ छोड़ गया। फलस्वरूप उसके दो पुत्र हुए ‘ओमेई’(देवता) और ‘ओकेह’ (इंसान)। उसी ओमेई के तीन बेटे हुए जो मेलेई,नागाओ और कोलाइर्म संप्रदायों में बटँकर आज आपस में ही लड़ाई कर रहे हैं। तब क्या मणिपुर की अशांति ईश्वर-प्रदत्त है.....
मणिपुर के अधिकांश देवी-देवता प्रकृति से जुडे हैं। वहाँ मानव शरीर के विभिन्न हिस्सों को लेकर मंदिर बने हुए हैं। मणिपुरी संस्कृति में नश्वर देह अपनी विशिष्ट अमरता के साथ लोक जीवन में व्याप्त है।सोराहेन वहाँवर्षा के देवता हैं। थौंगरेन को मृत्युदेव माना जाता है।माइरांग को अग्निदेवता माना जाता है। फाउबी देवी ने मणिपुर में जगह-जगह घूमकर खेती की कला फैलाई थी। एक प्रचलित लोक मान्यता है कि वह जहॉं भी जाती थी,अपना एक पति बना लेती थी। फाउबी स्वंय अपनी मृत्यु के बाद धान का पौधा बन गई। तब से उसे धान की देवीकहा जाता है।
मणिपुर की शांति ओर सौहाद्रता चाहने वाले जन-मानस को अब यह समझ लेना चाहिए कि इरोम शर्मिला की देह अब शांति की देवीबन गई है। एक ऐसी शांति की देवी जो अपने को पूज्यनीय नहीं, केवल अपने माध्यम से सर्वत्र शांति को समझे जाने का निमित्त बनी हुई है। इरोम शर्मिला की देह में बसी उस शांति की देवी को राज्य, कानून, बुध्दिजीवी और समाज शास्त्रियों को संवेदनशील होकर समझना होगा। मणिपुर के लिए यह आंदोलन मात्र नहीं है,संस्कृति रक्षक आपात आवश्यकता है। इसे मणिपुर की स्थानीय आँख से ही देखा-समझा जाना चाहिए।
यह सुखद है कि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों को समर्पित संगठन इरोम शर्मिला के शांति-यज्ञ में शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति, पीपुल्स युनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, इंडिया सोशल एक्शन फोरम जैसी कई संस्थाएं इसका समाधान चाहती हैं। लेकिन तब तक मणिपुर का अपना समाज शास्त्र अपने साथ कई उथल-पुथल मचा चुका होगा। मणिपुर का सबसे लोकप्रिय पर्व ‘निगोल चौकाबा’ अपनी अहमियत को ही अंगूठा दिखाने लगा है। यह राखी जैसा ही पर्व होता है। इसमें भाई अपनी बहनों को अपने घर निमंत्रित करते हैं और उन्हें यथसंभव सम्मान देते हैं। लेकिन अब वहाँ भाई ही उस कानून के खिलाफ खड़े हो गए हैं जिसमें बहनों को भी पैतृक संपति का हिस्सेदार बनाए जाने का अधिकार है। यह काल के क्रूर पंजों से निकली विडम्बना नहीं तो और क्या है....
यह कितना दुखदायी है कि मई 2007में दक्षिण कोरिया के क्वांकतू शहर के नागरिकों ने जब इरोम शर्मिला को प्रतिष्ठित मानवाधिकार पुरस्कार दिया तब भारत सरकार ने शर्मिला को खुद वहाँ जाकर यह पुरस्कार स्वीकार करने की अनुमति नहीं दी। यह उल्लेखनीय है कि यह दक्षिण एशिया का सबसे प्रतिष्ठित मानवाधिकार पुरस्कार है। जो इरोम शर्मिला के पूर्व अफगानिस्तान की मलालाई जोया,एशियन हयूमन राइट्स कमीशन हागकांग के बेसिल फर्नाडों,श्रीलंका के मान्यूमेंट फार दि डिस्अपीयर्ड की डांदेनिया गमागे जयंती,इंडोनेशिया के अर्बन पुअर कंसोशिर्यम के वर्दाह हफीदज,पूर्वी तिमोर के क्सानाना गुस्माओं और म्यांमार की आंग सा सू की को मिल चुका है। यह पुरस्कार शर्मिला के भाई सिंहजीत ने साहसी मायरा पाइबी के कार्यकर्ताओं और मणिपुर की संघर्षरत जनता के नाम शर्मिला की तरफ से प्राप्त किया।
यह अच्छी पहल है कि श्रीनगर से इंफाल तक शर्मिला के लिएजनकारवां पिछले दिनों निकाला गया। 10 राज्यों को पार करता यह 4500 किलोमीटर यात्रा का कारवां था, जो श्रीनगर से चलकर लुधियाना, पानीपत, करनाल, दिल्ली, पटना लखनऊ, कानपुर,गौहाटी होते हुए इंफाल पहुंचा। अपने पड़ावों पर रुकते हुए इस कारवां ने स्थानीय संगठनों के साथ सेमिनार आयोजित किए और शांति की इस पहल को बढ़ाया।
अदूरदर्शी नीति-निर्धारकों और विध्वंसकारी ताकतों को समझ लेना चाहिए कि इरोम शर्मिला अब अकेली नहीं है। इरोम शर्मिला की देह की पृथ्वी ने अपने होने की उपस्थिति को व्यापक संवेदनशील जनमानस तक विस्तारित कर दिया है। केंद्र की राजनीति करने वाले और राज्य-विशेष तक सीमित क्षेत्रीय दलगत राजनीति को इसे गंभीरता से लेना होगा। यह उनके लिए केवल मुद्दा मात्र बनकर नहीं रह जाए। इस पर विशेष सजगता की आवश्यकता है। ऐसे में जब मानवाधिकार हनन के खिलाफ मणिपुर में चल रहा यह आंदोलन दुनिया के कई हिस्सों में फैल चुका है,हमारे राजनीतिक दलों की चुप्पी हमें ही शर्मिन्दा कर रही है। लेकिन इरोम शर्मिला को हम सब अपनी गीली आँखों लेकिन प्रतिदिन मणिपुर की पहाड़ियों पर उदय होते सूरज के दृढ़ विश्वास के साथ यह यकीन दिलाते हैं कि तुम्हें शर्मिन्दा नहीं होना पड़ेगा। तुम्हारी देह की प्रत्येक शिराओं में हम सबकी ही आवाज प्रवाहित हो रही है। तुम्हारी देह की मांस-मज्जा और उसके रोम-रोम के स्पंदन में शांति की देवी शांति को आहुत करने के लिए प्रतिबध्द है। हम सब उसी निराकार शांति की देवी की स्तुति में अपने अपने तईं प्रयासरत हैं। आखिरकार इस दुनिया को अब उतने विकास और उतने विज्ञान की आवश्यकता नहीं है जितनी शांति की।